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"More is meant than meets the ear."
( कानों को जो सुनाई पड़ता है--उससे अधिक काव्य में अपेक्षित अर्थ है) प्रकारान्तर से ध्वनि को ही सूचित करती है । परन्तु इस काव्य-तत्त्व की पाश्चात्य साहित्य में व्यवस्था नहीं मिलती । इस काव्य-तत्त्व की प्रथम मार्मिक व्याख्या आनन्दवर्धन ने की, जिसे उनके पश्चात् अभिनवगुप्त ने लोचन टीका में और भी दृढ़ीभूत किया। तभी अनेक ध्वनि-विरोधी आचार्यों ने इस काव्यातत्त्व का खण्डन करना चाहा परन्तु आचार्य मम्मट इन सभी विरोधी आचार्यों के आक्षेपों का उत्तर देकर अपने काव्यप्रकाश इस ध्वनि-सिद्धान्त की पूर्ण व्यवस्था स्थापित कर दी.
इदमुत्तममतिशयिनि व्यंग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधः कथितः ॥ "
काव्य-सृष्टि में इस ध्वनि-तत्त्व का बहुत ही अधिक उपयोग है । इस ध्वनि का ही आश्रय लेने से कवियों की प्रतिभा अनन्त रूप में प्रस्फुटित होती है । ध्वनि सम्पन्न कविता एक नवीन ही चमत्कार उत्पन्न करती है । क्योंकि काव्य के कथन प्रकार का ही काव्य में विशेष महत्त्व होता है । ऐसी स्थिति में यदि काव्य के वर्णन प्रकार में कुछ नवीनता एवं विभिन्नता है, तो वह वस्तु नवीन तथा चमत्कारयुक्त प्रतीत होगी । सामान्यतया वाटिका के वृक्षों में मूलतः किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता है । वे ही रूखे-सूखे वृक्ष होते है, परन्तु वसन्त ऋतु आते हो उन्हीं पुराने वृक्षों में एक नवीनता, एक अपूर्वता दिखने लगती है । ऐसी ही कुछ स्थिति ध्वनि से युक्त काव्य की है कि अर्थ या भाव की कितनी भी प्राचीनता होने पर भी ध्वनि, उसमें एक नवीनता फेंक देती है। वह उस काव्य को फिर से एक नवोन शक्ति प्रदान कर देती है। तब वही एक ही अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार द्वारा अभिव्यक्त होने के कारण नया तथा अपूर्व होने लगता है । इसी कारण कवि प्रायः ध्वनि का ही आश्रय लिया करते हैं । शायद इसीलिए ध्वनिस्थापनाचार्य आनन्दवर्धन ने कवि की उपमा सरस वसन्त से दे डाली है
भूमिका : १२५
दृष्टपूर्वा अपि ह्यर्थाः काव्ये रसपरिग्रहात् । सर्वे तथा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः ॥ २ जिस प्रकार वसन्त अपने आगमन से वृक्षों में एक नूतन चमत्कार
१. काव्यप्रकाश, १/४ |
६. ध्वन्यालोक, ४/१०८ ।
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