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________________ जैनमेघदूतम् में ध्वनि-विमर्श ध्वनि : सामान्य परिचय : प्रतिभासम्पन्न सहृदय को काव्य में एक ऐसा अर्थ प्रतीत होता है, जो मुख्यार्थ या लक्ष्यार्थ से पूर्णतया भिन्न होता है, यही अर्थ है-व्यंग्यार्थ। इसी व्यंग्यार्थ को ही पूर्वाचार्यों ने "ध्वनि" नाम से अभिहित किया है। यह अर्थ प्रतीतिगम्य होने से "प्रतीयमान" भी कहा जाता है । इस प्रतीयमान अर्थ की सिद्धि काव्य में वस्तुस्थिति के अवलोकन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हो सकती है। ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने इस प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति हेतु दृष्टान्त रूप में लावण्यवती युवती को लिया है प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु॥ किसी सुन्दरी के शरीर में जिस प्रकार प्रत्येक अंग तथा अवयव से भिन्न लावण्य को पृथक् सत्ता विद्यमान रहती है, उसी प्रकार काव्य में भी उसके अंगों से पृथक् चमत्कारजनक प्रतीयमान अर्थ की सत्ता नियतमेव वर्तमान रहती है। __आनन्दवर्धन से पहले किसी ने भो ध्वनि को काव्य का स्वतन्त्र तथा महनीय तत्त्व नहीं स्वीकार किया था। ध्वनिस्थापनाचार्य का गौरव आनन्दवर्धन को इसी कारण मिला कि उन्होंने अपनी अप्रतिम मनीषा द्वारा इस काव्य-तत्त्व को अन्य काव्य-तत्त्वों से सर्वथा एक पृथक् स्वतन्त्र स्थान दिया। ध्वनि का साम्राज्य तो आदिकवि वाल्मीकि, व्यास और महाकवि कालिदास जैसे काव्यकारों के भी काव्यों में है, परन्तु इन सब कवियों ने अपने काव्यों की ध्वनि को काव्य-तत्त्व का एक प्रमुख सिद्धान्त निश्चित करने का तनिक भी प्रयास नहीं किया है, फिर ध्वनि को काव्यतत्त्व का प्रधान सिद्धान्त प्रतिपादित करना साधारण आलोचक की बुद्धि के बस का भी तो नहीं। पाश्चात्य आलोचकों ने भी ध्वनि के चमत्कार को स्वीकार किया है । पाश्चात्य कवि ड्रायडन को यह उक्ति१. ध्वन्यालोक, १/४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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