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________________ १२२ : जैनमेघदूतम् न्धित न होकर किसी अन्य से ही सम्बन्धित मिलते हैं । साथ ही ये संयोग- श्राङ्गारिक वर्णन अधिकांशतः प्रकृतिगत चित्रणों की अभिव्यक्ति ही प्रयुक्त किये गये मिलते हैं। मेघदूत के ये संयोग-वाङ्गारिक वर्णन अनेक नदियों, पर्वतों, काननों, अलका व उज्जयिनो नगरियों तथा यक्षप्रिया के निवास स्थान का उत्कट श्राङ्गारिक वर्णन प्रस्तुत करते हैं । इसी प्रकार जैनमेघदूतम् में काम एवं वसन्त आदि का वर्णन पूर्णतया शृङ्गार पर ही आधारित है । श्रीकृष्ण की पत्नियों की श्रीनेमि के साथ क्रीडा-सम्बन्धी अनेक स्थल संयोग श्रृङ्गार की अभिव्यक्ति करते मिलते हैं । वर्तमान युग में मेघदूत एवं जैनमेघदूतम् दोनों काव्य सुन्दर सन्देश प्रस्तुत करते हैं | आज जब मानव पारस्परिक कलह, ईर्ष्या और वैमनस्य से छिन्न-भिन्न हुआ जा रहा है; इस प्रबल समरानल में विश्व की समस्त सभ्य जातियाँ अपना सर्वस्व स्वाहा करती जा रही हैं; विश्व-संस्कृति अपने ही पालकों से पददलित होकर अपने जीवन की अन्तिम साँसें गिन रही है तब विश्व - संस्कृति - विनाश के ऐसे कठिन समय में आध्यात्मिकता की मूर्ति, त्याग, संयम एवं प्रेम के प्रतीक ये सन्देशकाव्य अपने हाथों में आशावाद का संबल लेकर विश्व मानव के समक्ष उपस्थित होते हैं और मानों वे उस विश्व मानव से पुकार-पुकार कह रहे हों कि भौतिकता का आश्रय, भोग-विलास की अभिलाषा एवं धर्मविरुद्ध काम की सेवा मानव को अवनति के गर्त में झोंकने के हेतु सर्वदा जागरूक रहती है । इस प्रकार कविता - वनिता के लावण्य की अभिवृद्धि में कल्पना- विलास की विद्वत्ता, कोमल भावों की सुकुमारतर अभिव्यक्ति एवं रसासिक्त मधुरता का जो सतत प्रवाह मेघदूत एवं जैनमेघदूतम् में हमें मिलता है, वह अन्यत्र अप्राप्य है । यक्ष और राजीमती तो उन भावाभिव्यक्तियों के आलम्बन मात्र हैं । यद्यपि मेघदूत में शान्त रस का निदर्शन कहीं भी नहीं होता है, परन्तु मेघदूत का प्रत्येक शब्द तथा प्रत्येक दृश्य वियोग-व्यथित मानव-मानस की गम्भीर निःश्वास है । इसी उद्देश्य से कवि ने इसे एक देशीय विप्रलम्भ से ओत-प्रोत किया है । अतः मेघदूत में विप्रलम्भ-शृङ्गार रस के अतिरिक्त अन्य रसों का न उपलब्ध होना अस्वाभाविक नहीं है । जबकि आचार्य मेरुतुङ्ग संयम और सदाचार की स्थापना करते हुए • अपने जैनमेघदूतम् काव्य को परमार्थ तत्त्व के निरूपण की ओर ले गये हैं । इसलिए इसमें शान्त रस की प्रस्थिति स्वाभाविक ही है। फिर भी गहन शृङ्गार रसालिप्त अजस्त्र धारा को वैराग्य की तरफ मोड़ देना, कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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