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________________ भूमिका : ११९ रागाम्भोधौ ललितललनाचाटुवाग्भङ्गिभिर्यः संप्लाव्येत प्रतनुगरिमा स क्षमाभृद्गणोऽन्यः । औन्नत्यं तत्तदचलगुरश्चेष माध्यस्थ्यमीशो धत्ते येन स्फुटवसुममुं स्प्रष्टुमप्यक्षमास्ताः ॥ सखियों की शान्त रस से आसक्त ऐसी वचन-रचनाओं को सुनकर पति श्रीनेमि के ध्यान से सावधान बुद्धिवाली राजीमती, अपने स्वामी की तरह ही राग-द्वेष आदि से रहित होकर तन्मयत्व को प्राप्त करती है, जिसके प्रभाव से वह गिने हुए दिनों में ही परम आनन्द के सर्वस्व मोक्ष का वरण करती हुई अनुपम सौख्यलक्ष्मी को प्राप्त करती है सध्रीचीनां वचनरचनामेवमाकर्ण्य साऽथो पत्युानादवहितमतिस्तन्मयत्वं तथाऽऽपत । सङ्ख्याताहैरधिगतमहानन्दसर्वस्वसद्मा । तस्माद्भजेऽनुपमिति यथा शाश्वती सौख्यलक्ष्मीम् ॥ शान्त रस के द्वारा पर्यवसित यह दूतकाव्य प्रत्यक्षतया लोक-जीवन का परिमार्जन कर उसको आध्यात्मपरक दृष्टि प्रदान करता है एवं परोक्षतया काव्य-धरातल पर निर्वेद की रसपूर्ण अभिव्यंजना करता है। शान्त रस ही एकमात्र ऐसा रस है जो मानव के समक्ष मानवधर्म की वास्तविकता को चित्रित करता है, मानव की विषय-भोग रूपी तृष्णाओं का शमन करता है और मानव-हृदय में “सर्वे भवन्तु सुखिनः" की भावना जागरित करता है। इसी प्रकार के सत्-साहित्य से ही जगत् में विश्व-बन्धुता की भावना प्रस्फुटित होती है और इस जैनमेघदूतम् में ऐसे ही त्याग-प्रधान जीवन का अतिगूढ़ सन्देश अवगूढ़ित भी मिलता है। __ इस प्रकार शृङ्गार रस के वातावरण में प्रवाहित होने वाली इस दूतकाव्य-परम्परा को आचार्य मेरुतुङ्ग सदृश जैन मनीषी ने--अपनी काव्यप्रतिभा द्वारा एक नवीन आध्यात्मिक रूप देकर एवं श्रीनेमि के सदृश महापुरुषों को काव्य-नायक बनाकर-सहृदय रसिकों के समक्ष शान्त रस का एक आदर्श उपस्थित किया है। रस-समीक्षण (कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में) : जैनमेघदूतम् के उपर्युक्त रस-विमर्श को जब हम कालिदासीय मेघदूत के साथ एक ही निकष पर परखने के लिए देखते हैं तो यह स्पष्ट होता १. जैनमेघदूतम्, ४/४० । २. वही, ४/४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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