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११८ : जैनमेघदूतम् शृङ्गार रस से परिपूर्ण इन प्रयोगों के सम्यक् आलोचन के पश्चात् हम पाते हैं कि इस काव्य के प्रायः समस्त शृाङ्गारिक प्रयोग प्राकृतिक आवरण से ढके उपलब्ध होते हैं। अतः उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैनमेघदूतम् के समस्त संयोगशृङ्गारिक वर्णनों में अन्य चाहे जो भी तत्त्व हों या न हों परन्तु उनमें प्रकृतिगत विशेषताएँ कूट-कूट कर भरी पड़ी हैं ।
शान्त रस : जैनमेघदूतम् में कवि ने नायक श्रीनेमि को विरागी बनाकर उसे आध्यात्मिकता की सरणि में ले जाने का सफल प्रयास किया है। इसी कारण इस काव्य में उभयपक्षों (संयोग एवं विप्रलम्भ शृङ्गार) सहित शृङ्गार रस के साथ ही शान्त रस की भी अवधारणा प्रस्तुत की गयी है और काव्य का पर्यवसान भी शान्त रस में किया गया है ।
काव्य के प्रारम्भ में ही नायक श्रीनेमि आध्यात्मिक भावनाओं द्वारा उद्भूत मानसिक उद्वेलन के कारण स्वयमेव सन्त्रस्त होकर स्वकान्ता राजीमती का परित्याग कर देते हैं। श्रीनेमि के द्वारा परित्याग कर दिये जाने के दूख से अत्यन्त दुःखी राजीमती अपनी सखियों द्वारा बहविध समझाई जाने पर अपनी कामजनित मोह-पीड़ा का बोध रूपी शस्त्र से हनन कर जब श्रीनेमि के पास पहुँचती है, तो श्रीनेमि पर्वतश्रेष्ठ पवित्र रैवतक पर्वत (पिण्ड के आध्यात्मिक जगत्) के उच्चतम शिखर (आनन्दमय कोश के उच्चतम स्तर) पर तप में ध्यानस्थ मिलते हैं ।
शान्त रस की अभिव्यञ्जना करता हुआ राजीमती की सखियों का यह कथन, मोहरूपी महामल्ल को वशीभूत करने वाले श्रीनेमि की अध्यात्मपरक विशेषताओं को इस प्रकार प्रकट कर रहा है कि जो तुच्छगरिमा वाला पर्वत-समूह समुद्र-कल्लोलों में डूब जाता है, वह पर्वत कम ऊँचाई वाला है । परन्तु ये श्रीनेमि पर्वतों के राजा तथा रत्नों से दीप्त उस मेरु पर्वत के सदृश हैं, जो मेरु पर्वत उस औन्नत्य (सर्वोच्च होने के कारण) और माध्यस्थ्य (विश्व के मध्य में स्थित होने के कारण) को धारण करता है, जिसके कारण समुद्र-तरंगें उनका स्पर्श तक भी नहीं कर पाती हैं
१. जैनमेघदूतम्, १/१ । २. वही, ४/३९ ।
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