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________________ भूमिका : ११७ पहना दिया । एक अन्य रमणी ने तीक्ष्ण कटाक्ष चलाते हुए जड़ से उखाड़े एक श्वेत कमल को श्रीनेमि के वक्षस्थल में यह कहते हए पहना दिया कि 'अरे, तू मेरे देवर के निर्मल नेत्रों से स्पर्धा कर रहा हैं' स्पर्धध्वे रे! नयनलिने निर्मले देवरस्य स्मित्वेत्येवं शिततरतिरःकाक्षकाण्डान् किरन्ती ॥ इस प्रकार कृष्ण-पत्नियों द्वारा बन्दी बनाए गये श्रीनेमि, स्वयं भी उन रमणियों को शतशः सींचते हुए, विद्युत् से युक्त सुन्दर वर्षा करते हुए मेघ के सदृश सुशोभित हुए और तब वे श्रीनेमि उस दीर्घिका से उसी प्रकार निकले, जैसे ऐरावत क्रीडा करके समुद्र से निकलता है अश्रान्तोऽपि श्रममिव वहन् व्यक्तमुक्तायिताम्भो बिन्दू रक्तोत्पलदललवामुक्तरक्तांकराढः । श्रीमान्नेमिर्जलपतिकफरपुण्डरीकप्रकाण्डो वारांराशेरिव सुरकरी पुष्करिण्या निरैयः ॥ श्रीनेमि के अतुलनीय स्वरूप को अतीव शृाङ्गारिक स्तुति करती हुई रुक्मिणी कह रही है कि हे देवर ! काम तुम्हारे रूप को सुनकर और इस प्रकार लज्जित होकर अनंग हो गया है, इन्द्र ने आपके लावण्य को सुनकर उसे देखने की इच्छा से सहस्र नेत्रों को धारण कर लिये हैं और तारुण्यशोभा ने तो उन दोनों का उसी तरह उत्कर्ष बढा दिया है जैसे शरद् ऋतु चन्द्र और सूर्य की शोभा बढ़ा देती है। किन्तु फिर भी तुम इस अप्रतिम रूप, लावण्य और तारुण्य को स्त्री के बिना काननकुसुमवत् (जङ्गल के पुष्प-सदृश) बना डालना चाहते हो । इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अनेक पत्नियों ने भी श्रीनेमि को पाणिग्रहण करने के हेतु अपने श्राङ्गारिक-कथनों द्वारा प्रेरित किया है। कृष्ण-पत्नियों को श्रीनेमि के साथ भाँति-भाँति की ये विलासमय एवं सुमधुर क्रीडाएँ एवं उनके चातुर्यपूर्ण ये विविध कथन संयोग-शृङ्गार रस को ही पुष्टता प्रदान करते मिलते हैं। इस प्रकार जैनमेघदूतम् के संयोग १. जैनमेघदूतम्, २/४६ । २. वही, २/४७ (पूर्वार्ध)। ३. वही, २/४८॥ ४. वही, २/४९ । ५. वही, ३/८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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