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११६ : जैनमेघदूतम्
श्रीकृष्ण की पत्नियाँ श्रीनेमि को चारों ओर से घेर लेती हैं और उनके साथ विविध प्रकार की क्रीडाएँ करने लगती हैं । श्रीकृष्ण की किसी एक पत्नी ने-भ्रमर-समुह जिसके परिमल पर मंडरा रहे हैं तथा जो बाल और अरुण किशलयों एवं सभी प्रकार के पुष्पों से गुंथी हुई है ऐसीएक माला को श्रीनेमि के कण्ठ में पहना दी।
एक अन्य हरिवल्लभा ने श्रीनेमि के शरीर में चन्दन-रस से पत्रवल्ली की रचना की और उनके सिर पर पौष्प-मुकूट रख दिया तथा एक हरिप्रिया ने मेखला के बहाने श्रीनेमि के कटि-प्रदेश में रक्तकमलों की माला ऐसे बाँध दी, जैसे प्रकृति आत्मा को बाँध लेती है--
व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कटोरे .. काञ्चीच्याजात्प्रकृतिरिव तं चेतनेशं बबन्ध । किसी एक अन्य हरिवल्लभा ने चन्दन-रस से सिक्त तथा सजाकर रखे हुए सरस पुष्पों से श्रीनेमि के वक्षस्थल को ढक दिया ।" इस प्रकार हरिवल्लभाओं द्वारा नानाविध सज्जित श्रीनेमि उसी प्रकार सुशोभित हुए जैसे पुष्पित पारिजात हो
पौष्पापीडः शितिशतदलैः क्लुप्तकर्णावतंसः कण्ठन्यञ्चद्विचकिललुलन्मालभारी सलोलम् । तत्केयूरो बकुलवलयः पमिनीतन्तुवेदी
रेजे मूत्प्रिति मम पतिः पुष्पितात्पारिजातात् ॥ इसी प्रकार वापी-विहार में भी हरिवल्लभाओं के साथ श्रीनेमि की अत्यन्त शृङ्गारिकता पूर्ण क्रीडा सम्पन्न होती है। सारंगाक्षी उन रमणियों ने सुरभित रंगों द्वारा श्रीनेमि को सभी ओर से रंग दिया। तभी उनमें से एक रमणी ने एक कमल को तोड़कर श्रीनेमि के कर्मों में
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१. जैनमेघदूतम्, २/१८ । २. वही, २/१९। ३. वही, २/२० । ४. वही, २/२१ (उत्तरार्ध)। ५. वही, २/२२ । ६. वही, २/२३। ७. वही, २/४५ ।
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