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भूमिका : ११५
श्रीमुख के, कमल-पत्र उनके नेत्रों के, पुष्प सुगन्ध उनके मुखामोद के एवं उत्तम रत्न उनके शरीर के तुल्य हैं । श्रीनेमि के सुन्दर वदन से पूर्णचन्द्र सदृशता प्राप्त करता है, श्रीनेमि के नेत्रों से कमल-दल सदृशता प्राप्त करता है, श्रीनेमि के मुख- परिमल से पुष्प - पराग सदृशता प्राप्त करता है तथा श्रोनेमि के शरीर से रिष्ट-रत्न सदृशता प्राप्त करता है' ।
काव्य में वासन्तिक शोभा का अत्यन्त श्राङ्गारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है । यह वसन्त ऋतु कामदेव के सेनानी की भाँति पथिकअंगनाओं को विधवा बनाता हुआ चारों ओर प्रादुर्भूत हुआ
एवं दिष्टे व्रजति जनयन्नध्वनीनाङ्गनानां विश्वस्तत्वं यमनियमभीदायको व्याप्तविश्वः ३ ॥
कामदेव के सेनानी इस वसन्त के, वनों से श्यामोभूत पर्वत युद्ध के लिए समुद्यत हाथी के समान थे । पर्वतों पर उगे तालीवन उनके ध्वजासमूह थे, वृक्ष-किशलय ही उनके अंग में लिप्तसिन्दूर थे और स्वर्ण-सदृश अंकुर ही उन पर पड़े स्वर्णिम कालीन थे ।
उद्यान में श्रीनेमि के स्वागत में वन-लक्ष्मी ने तो मानो नाटक हो आयोजित कर रखा था, जिसमें वायु ही वादक थे, भृंग सुमधुर गान करते थे, कोकिलें तान दे रही थीं, कोचक (बाँस) वंश-वर्णन कर रहे थे और लताएँ नृत्य कर रही थीं
वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायंस्तालान् दधे परभृतगण: कीचका वंशकृत्यम्" ॥
इस नाटक की आयोजिका वनलक्ष्मी का कितना श्राङ्गारिक चित्रण किया गया है कि भ्रमर रूपी पुतलियों वाले कमल ही जिसके नेत्र हैं, उन कमलों वाली वापियाँ ही जिसके मुख हैं, उज्ज्वल पुष्प ही जिसके ईषत् हास्य हैं, शुंगिका ही जिसका स्फुट अनुराग है और पुष्पों से गिरता हुआ रज ही जिसका कुंकुमलेप है तथा नाना प्रकार के पत्ते हो जिसके वस्त्र हैं ।
१. जैनमेघदूतम्, १/२३ ।
२ . वही, १/२४ ॥
३. वही, २ / १ (पूर्वार्ध) |
४. वही, २ / ३ ।
५. वही, २ / १४ (पूर्वार्ध) | वही, २/१५ ।
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