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निर्बीराऽसौ तवहमबलाऽसासहिः पापतिश्चेत् निश्चैतन्यान्नवतिपुरुषीं खातिकां स्यात्सदा किम् ?' ॥
विरहव्याकुला राजीमती को श्रीनेमि के वियोग का कष्ट इतना अधिक सता रहा है कि वह नदी को अंगार - परिखा, पहने हुए अपने रेशमी वस्त्रों को तुषानल, चन्द्र को दावानल, कमल को वृश्चिक, भूषणों को त्रिकुट और पुष्प- ताम्बूल आदि खाद्य-स्वाद्य वस्तुओं को शरीरव्यापी विष मानती है ।
भूमिका : ११३
वह अपने स्वामी के विरह से इतनी दीन-हीन सी है कि वह स्वयं को दोषी मान लेने को तैयार है। वह कहती है यदि आप दुर्जनों को आनन्ददायक कोई दोष लगाकर मुझ वराकी को तापित करते हैं, तो ठीक ही है। अन्यथा आप कलंक से लाञ्छित होंगे और फिर यमराज भी तो बिना बहाने किसी को नहीं मारता है।
इस प्रकार अति सहजतापूर्वक अपने हृदय में पूर्वसंयोजित बातों को नष्ट-भ्रष्ट होते देखकर वह श्रीनेमि से कहती है कि मुझे आशा थी कि मैं आपकी प्रीति के लिए आपकी महिषी बनूंगी, किन्तु विधि ने मुझे उलटे काली, दुर्बल और प्रबल दोषों वाली भैंस बना दिया है ।
मैं सोचा था कि प्राणनाथ जीवनपर्यन्त पानी भी मेरे ही हाथ से पियेंगे, परन्तु आप मुझे छोड़कर, मोक्ष की इच्छा करने लगे हैं । अतएव आपको नमस्कार है
प्रव्रज्यायाः
पुनरभिलषंस्तन्मुखेनामुचन्मां ज्ञानश्रीयुक् तदथ कमितोन्मुच्य तां तन्नमोऽस्तु ॥
यहाँ राजीमती श्रीनेमि को ईर्ष्याभाव से नमस्कार कर रही है । इस तरह अपने विरह- सन्देश में किञ्चित् व्यंग्य और किञ्चित् रोष का पुट लेकर राजीमती बहुत संलाप करती है, परन्तु राजीमती के इस विरहपूर्ण प्रलाप को सुनकर भी श्रीनेमि का हृदय नहीं पिघला । इस पर राजीमती की सखियाँ उसे समझाती हैं कि श्रीनेमि ने अपने पराक्रम से मोह रूपी
१. जैममेघदूतम् ४/२८ ( उत्तरार्ध) ।
र. वहीं, ४ / २९ ।
३. वही, ४ / ३० ।
४. वही, ४ / ३४
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५. वही, ४ / ३५ ( उत्तरार्ध) ।
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