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११२ : जैनमेघदूतम् भी, फिर श्वसुर के द्वार से लौट आये । हे गुणनिधान ! चार वर्ष वाले बालक को भी ऐसे नहीं वंचित किया जाता, जैसे आपने मुझे वंचित किया
आगे वह फिर कहती है कि आपके ये ज्येष्ठ भ्राता श्रीकृष्ण एक सहस्र सुन्दरियों के साथ क्रीडागार में अविश्रान्त रूप से अतिशय क्रीडा करते हैं और आप इतना समर्थ होते हुए भी एक सुन्दरी को अंगीकार करने का उत्साह नहीं करते हैं। ठीक ही है, स्वभाव-श्रेष्ठ लोगों के चरित्र को कौन जान सकता है ? __यदि आप यह कहते हैं कि वैराग्यशत्रु प्रौढ़ यौवन के होते हुए भी मैं नीराग हूँ, इस निर्विकार बुद्धि से मैंने कामभोगों को छोड़ा है तो फिर मैं कहीं पौरुषहीन जनता की पंक्ति में न गिन लिया जाऊँ, इस भय से शंखध्वनि द्वारा पुर में क्षोभ तथा श्रीकृष्ण की भुजा का मोचन क्यों किया था ?
हे नाथ ! यदि आप वस्तुतः अराग हैं तो दिव्यज्ञानत्रयो से युक्त होते हुए भी सामान्य बालक की तरह कभी मनोज्ञ एवं स्नेहिल हँसना, तेजी से सरकना, सामने पड़ने वाली किसी भी वस्तु को कौतूहलतापूर्वक देखना, भूमि पर लोटना, खाली हाथ मुट्ठी बाँधना, उत्तान लेटकर हाथ-पैर चलाना, अस्पष्टाक्षर बोलना, पैदल ही वक्रता के साथ धीरे-धोरे चलना, जिस किसी भी वस्तु को पकड़ने की इच्छा करना, दोनों हाथों से बुलाने वाले व्यक्ति से दूर भागना, प्रेमीजन को कण्ठ लगाना, हठपूर्वक जननी की गोद में बैठ जाना, पिता की दाढ़ी को पकड़कर खींचना आदि-आदि विविध चेष्टाएँ आपने क्यों की?
इस प्रकार ऐसे प्रश्नों की बौछार से भो जब राजीमती को शान्ति न मिली तो उसने आत्महत्या की भी ठान ली, शायद यही सोचकर कि श्रीनेमि के वियोग से उत्पन्न विरहाग्नि से आतप्त उसके शरीर को इसी से कुछ शान्ति प्राप्त हो जाए। इसीलिए वह श्रीनेमि से पूछतो है कि पति-पुत्र से विहीन तथा अमर्षशील मैं होश खो देने के कारण यदि नब्बे पुरुषों के बराबर गहरे किसी तालाब में कूद पडूं, तो क्या होगा ?
१. जैनमेघदूतम्, ४/१८ । २. वही, ४/१९ । ३. वही, ४/२१ । ४. वही, ४/२२, २३ ।
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