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________________ भूमिका : १११ राजीमती का विरहपूर्ण कारुणिक-प्रलाप अनायास ही हृदय को झंकृत कर देता है। उपालम्भ से परिपूर्ण उसके एक-एक तर्क सहृदय रसिक के अन्तस्तल को भेदते हुए से प्रतीत होते हैं। स्वामी श्रीनेमि के वैराग्य से राजीमती अत्यन्त सन्त्रस्त हो जाती है और तब मर्माहत उसके अन्तहृदय से उद्भूत मनोभाव, उपालम्भ के रूप में परिणत होकर श्रीनेमि पर एकाएक बौछार करने लगते हैं कि हे नाथ ! विवाहकाल में नवीन तथा स्थिर प्रेमवाली जिस मुझको आपने मधुर तथा घतात किन्त शीतल क्षैरेयी (खीर) की तरह हाथ से भी नहीं छुआ था, कामानल से अतीव तप्त हो वाष्पपूरित एवं अनन्यभुक्ता उसी मुझको आप आज क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? यां क्षेरेयोमिव नवरसां नाथ वोवाहकाले सारस्नेहामपि सुशिशिरां नाग्रही: पाणिनाऽपि । सा कि कामानलतपनतोऽतीव बाष्पायमाणा ऽनन्योच्छिष्टा नवरुचिभताऽप्यद्य न स्वीक्रियेत ॥ हे नाथ ! यदि मुनि बनकर मुझे त्यागना ही था तो मुझे पहले स्वीकार ही क्यों किया, क्योंकि सज्जन लोग "हरशशिकलान्याय' के अनुसार उन वस्तुओं को ही स्वीकार करते हैं, जिनका निर्वाह कर सकते हैं आसीः पश्चादपि यदि विभो ! मां मुमुक्षुर्मुमुक्षुः भूत्वा तत्कि प्रथमभुररीचर्करोषि स्वबुद्धया। सन्तः सर्वेऽप्यतरलतया तत्तदेवाद्रियन्ते यनिोद हरशशिकलान्यायतः शक्नुवन्ति ॥ राजीमती विरह में अति आतुर होकर अपना मानसिक सन्तुलन ही खो बैठती है, तभी तो वह श्रीनेमि के प्रति कुछ तीक्ष्ण-शब्दों का भी प्रयोग करने में किञ्चित्मात्र भी नहीं हिचकती है। अपनी बातों से वह श्रीनेमि को बहुत ही लज्जित करती है, साथ ही ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत करती है, जिससे श्रीनेमि की शायद मति पलट ही जाये, परन्तु ऐसा होता नहीं है । राजीमती के कुछ ऐसे ही अतिकरुण विरहपूर्ण सम्वाद दर्शनीय हैं हे नाथ ! आपने पहले तो स्वजनों के आग्रह से विवाह को स्वीकार किया और गुरुजनों तथा परिजनों के बीच विवाह करने लिए हाथी से गये १. जैनमेघदूतम्, ४/१५ । २. वही, ४/१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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