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११० : जैनमेघदूतम्
उद्भूत मनोभावों का प्रकटन करती है, तत्पश्चात् मेघमाला सदृश प्रभूत अश्रुधारा प्रवाहित करती हुई अतिदीन होकर मेघ का स्वागत करती है ।'
भूषितसर्वाङ्ग श्रीनेमि को कानन जाते हुए देखते ही राजीमती का मुख - यह सोचकर कि अब मैं उनके द्वारा कीचड़ से गीले हुए वस्त्र की भाँति त्याग दी गयी हूँ - उष्ण - निश्वासों तथा अश्रुजल-धारा से पूरित हो
गया
त्यक्तैवातः
परमचिकिल क्लिन्नवासोवदेषा हा कि भावि ? स्फुटसि हृदय ? द्वैधमापद्य किं न ? । ई चिन्ताकलतममनस्तापबाष्पायितास्यो
द्यातास्त्राम्बुर्व्यजनिषि ततोऽस्तोकशोकोदकुम्भः ॥
राजीमती का हृदय प्रिय के विरह में चूने की तरह फूट-फूट कर चूर्णित हो रहा है-
सम्प्रत्युष्णोच्छ्वसितवशतो
बाष्पधूमायमानं ।
स्फोटं स्फोटं हृदयमिदकं चूर्णखण्डीयते स्म ॥
वह दिन- कुमुदिनी को भी अपने से अधिक दुःखी नहीं मानती है, क्योंकि सायंकाल में चन्द्रमारूपी निजपति के आलिंगन से उसके पुनः विकास की आशा तो है
रक्तोदेष्यन्निजपतिक रासञ्जनादस्तिसायं
वीकाशाशा दिनकुमुदिनीर्बह्न मन्येऽद्य मत्तः " ॥
कोकी, चकोरी और मयूरी का शोक भी किञ्चित्कालीन ही होता है, परन्तु राजीमती का शोक सर्वकालिक है । क्योंकि वह कहती है कि मेरे स्वामी ने यौवनावस्था में मुझे उसी प्रकार छोड़ दिया है, जिस प्रकार साँप केंचुल छोड़ देता है
त्यक्ता पत्या तरुणिमभरे कनुकश्च क्रिणेवामत्रं वारां ह्रद इव शुचामाभवं त्वाभवं भाः ॥
१. जैनमेघदूतम्, १/१० । २. वही, ४ / ३-४ | ३. वही, ४ / ६ ।
४. वही, ४ /७ ( उत्तरार्ध) । ५. वही, ४ / ८ ( उत्तरार्धं ) ।
६. वही, ४ / ९ ( उत्तरार्ध) |
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