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भूमिका : १०९ के हृदय में अपने प्रिय-सम्बन्धी पूर्वरागमूलक विप्रलम्भ-शृङ्गार रस उद्भूत होता है । राजीमती की यह दशा समागम के पूर्व की ही दशा है, क्योंकि अभी उसने श्रीनेमि का दर्शन मात्र ही प्राप्त किया है। अतः पूर्वराग की स्थिति किञ्चित् अंशों में तो यहाँ घटित हो रही है, परन्तु यहीं पर पूर्वराग के ही प्रथम लक्षणानुसार नायक-नायिका परस्पर अनुरक्त नहीं हैं । यहाँ नायक तो पूर्णरूपेण रागशून्य है और मोक्ष का वरण करने हेतु स्वयं ही रैवतक पर्वत पर जा बैठा है । अतः यहाँ पर नायक-नायिका का अनुराग एकपक्षीय है । मात्र राजीमती अपने प्रिय स्वामी नायक श्रीनेमि से मिलने को आतुर है । इसलिए जैनमेघदूतम् का विप्रलम्भ शृङ्गार रस अपने प्रथम उपभेद पूर्वराग से किञ्चित् अंशों में सम्बद्ध है ।
जैनमेघदूतम् काव्य का प्रारम्भ वियोग की अतिकारुणिक स्थिति से होता है । नायक श्रीनेमि विवाह भोज के लिए काटे जाने वाले पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर विरक्त हो जाते हैं और विवाह स्थल से तत्काल ही वापस होकर पर्वतश्रेष्ठ पवित्र रैवतक पर आत्म-शान्ति एवं आध्यात्मिक सुख प्राप्ति हेतु चले जाते हैं । श्रीनेमि के वैराग्य धारण की सूचना पाते ही कामपीडिता राजीमती मूच्छित हो जाती है । उसका अंग-अंग इस समाचार से हिल उठता है । सखियों के शीतोपचार द्वारा किसी प्रकार चेतना वापस लाये जाने पर राजीमती, हृदय में तीव्र उत्कण्ठा को उत्पन्न करने वाले मेघ को देखकर सोचती है कि एक तो विरहिणियों के हृदय में द्रोह उत्पन्न करने वाला वर्षाकाल, दूसरा यह स्वभाव से कुटिल तारुण्यप्रवेश, तीसरा यह कि हृदयवल्लभ श्रीनेमि भोग से विरक्त हो चुके हैं और चौथा यह कि मेरा मन धर्मोचित मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता है । हाय ! क्या होना है ?
राजीमती की कितनी तीव्र विरह व्यथा वर्णित है । वह अपने जैसी अन्य विरहिणी स्त्रियों को मेघ के सदृश बतलाती है । वर्षाकाल में श्यामवर्ण यह मेघ जब बरसता है तो वे भी अपने मुख को श्याम बना लेती हैं और अश्रु बरसाती हैं । जब यह मेघ गरजता और विद्युत् चमकाता है तो वे भी कटुविलाप करती हैं और उष्ण-निःश्वास छोड़ती हैं । 3 राजीमती सर्वप्रथम मेघ को देखकर उसके समक्ष अपने अन्तस्तल से
१. जैनमेघदूतम्, १/२
२. वही, १ / ४ । ३. वही, १ / ६
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