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________________ १०८ : जैनमेघदूतम् स च पूर्वरागमानप्रवासकरुणात्मकश्चतुर्धा स्यात् । इनमें से कोई भी विप्रलम्भ - प्रकार पूर्णरूप से जैनमेघदूतम् में सन्निविष्ट नहीं हो पा रहा है। वैसे इस दूतकाव्य में विप्रलम्भ-शृङ्गार समस्त प्रसङ्ग राजीमती से सम्बन्धित हैं । राजीमती अपने प्रियतम श्रीनेमि को मात्र गवाक्ष से देखती भर है कि उनके विरक्त होकर चले जाने का समाचार सुनकर ही मूच्छित हो जाती है और फिर सचेत होकर अपने उन्हीं स्वामी की स्मृति से हो रही अपनी मनोव्यथा का कथन मेघ से करती है । इस प्रसङ्ग में ध्यातव्य यह है कि राजीमती अपने उन स्वामी श्रीनेमि के प्रति अधिक आकर्षित हुई है, जो विवाह मण्डप में उसको त्यागकर चले गये हैं । साथ ही अन्त में उसका यह स्वामि- आकर्षण नष्ट भी हो जाता है - श्रीनेमि को केवल - ज्ञान की प्राप्ति के कारण । अतः यहाँ पर विप्रलम्भ-शृङ्गार रस का प्रथम उपभेद पूर्वराग कुछ अंशों में स्पष्ट हो रहा है । साहित्यदर्पणकार ने पूर्वराग - विप्रलम्भ-शृङ्गार रस का लक्षण दिया है कि पूर्वराग का अभिप्राय है रूप-सौन्दर्य आदि के श्रवण अथवा दर्शन से परस्पर अनुरक्त नायक-नायिका की उस दशा का, जो कि उनके समागम के पूर्व की दशा हुआ करती है । रूप-सौन्दर्यादि का श्रवण तो दूत, बन्दी, सखी आदि के मुख से सम्भव है और दर्शन सम्भव है इन्द्रजाल में, चित्र में, स्वप्न में अथवा साक्षात् दर्शन में श्रवणाद्दर्शनाद्वापि मिथः संरूढरागयोः । दशाविशेषो योऽप्राप्तौ पूर्वरागः स उच्यते ॥ श्रवणं तु भवेत्तत्र व्रतबन्दिसखीमुखात् । इन्द्रजाले च चित्रे च साक्षात्स्वप्ने च दर्शनम् ॥ पूर्वराग - विप्रलम्भ-शृङ्गार रस के इस लक्षण के आधार पर जब जैनमेघदूतम् में विप्रलम्भ-शृङ्गार रस सम्बन्धी विचार करते हैं, तो मिलता है कि यहाँ राजीमती ने अपने स्वामी श्रीने मि का गवाक्ष से साक्षात् दर्शन किया है" । इस साक्षात् दर्शन के हो जाने के कारण ही राजीमती १. साहित्यदर्पण, ३/१८७ । २. जैनमेघदूतम् ३/३७ । ३. वही, ३ / ५१ । ४. साहित्यदर्पण, ३/१८८, १८९ । ५. जैनमेघदूतम्, ३/३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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