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________________ भूमिका : १०७ क्योंकि प्रायः समस्त प्राचीन आचार्यों ने घूम-फिर कर यह मान लिया है कि नवरस की ही प्रकल्पना समीचीन है। इन गम्भीरचेता आचार्यों ने रस-संख्या को विशेष महत्त्व नहीं दिया, इसीलिए जहाँ एक ओर सभी रसों को एक ही रस में समाहूत करने के प्रयत्न किये गये, वहीं दूसरी ओर भावों की अनन्तता के आधार पर रसों की अनन्तता भी सिद्ध की गयी। इसका प्रबल प्रमाण यही है कि आचार्य भोज ने दोनों दिशाओं में युगपत् प्रयत्न किया है-“रस संख्या एक भी है और अनन्त भी।" जैनमेघदूतम् में रस : ___जैनमेघदूतम् के रस-विवेचन के सम्बन्ध में कोई एक सुनिश्चित आधार नहीं उपलब्ध होता है। वैसे यह दूतकाव्य शृंङ्गार रस के दोनों पक्षोंसंयोग-शृङ्गार रस एवम् विप्रलम्भ-शृङ्गार रस-की पृष्ठभूमि लेकर रचा गया है, फिर भी जैनदूतकाव्यों में उपलब्ध होने वाली एक विशेषता इस दूतकाव्य में भी मिलती है । वह है-इन जैन कवियों द्वारा अपने दूतकाव्यों में शृङ्गार आदि रसों के अतिरिक्त शान्त रस की प्रस्तुति । यही विशेषता इस जैनमेघदूतम् काव्य में भी देखने को मिलती है। संयोगशृङ्गार रस एवं विप्रलम्भ-शृङ्गार रस के वातावरण में जैनमेघदूतम् की काव्य-रचना प्रारम्भ कर और फिर उसे शृाङ्गारिकता की चरम-कोटि तक पहुँचाकर, पुनः शनैः-शनैः धार्मिकता का पुट प्रदान करते हुए उसमें शान्त रस की स्थापना कर दी गयी है। यही कारण है कि जैनमेघदूतम् काव्य जहाँ एक ओर शृङ्गार रस के उभय पक्ष-संयोग एवं विप्रलम्भका प्रतिपादन करता मिलता है, वहीं दूसरी ओर शान्त रस का भी पूर्णतः दिग्दर्शन करवाता मिलता है। फलतः जैनमेघदूतम् में संयोग एवं विप्रलम्भ रूप उभय पक्ष सहित शृङ्गार रस एवं शान्त रस की स्थिति एक समान ही दृष्टिगत होती है। जैनमेघदूतम् का शृङ्गार रस अपने उभय पक्षों (संयोग एवं विप्रलम्भ शृङ्गार) के द्वारा जहाँ नायक-नायिका के शृाङ्गारिक क्रिया-कलापों एवं विरह-कातरहृदय की मर्मस्पर्शी वेदना की अभिव्यञ्जना करता है, वहीं जैनमेघदूतम् का शान्त रस जीवन-व्यापी सत्यता को अभिव्यजित करता है। विप्रलम्भ-शृङ्गार : साहित्यदर्पणकार के अनुसार विप्रलम्भ-शृंगार रस के चार प्रकार हैं-(१) पूर्वराग, (२) मान, (३) प्रवास और (४) करुण१. रस-सिद्धान्त : डा० नगेन्द्र, पृ० २७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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