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जैनमेघदूतम् में रस-विमर्श रस : सामान्य परिचय :
समस्त प्राणिजाति जन्म से रस के अभिमुख रही है। मानव तो क्या मानवेतर जीवों में भी सुख-दुःख की अनुभूति दृष्टिगोचर होती है। फिर तो इस रस का निरन्तर विकास एवं परिवर्तन के अटूट मार्ग पर अग्रसरित होते रहना और मानव-जाति में इसकी अजस्रधारा प्रवाहित होना अत्यन्त स्वाभाविक है। परन्तु इतनी बात अवश्य है कि रस की इस परम्परा को-जो कि मानव द्वारा सभ्यता के प्रथम विहान में पदार्पण करने के बहुत पहले से ही चली आ रही थी-वाणी में उसी प्रकार से नहीं उतारा जा सका था, जिस प्रकार आज उसका प्रयोग किया जा रहा है। वैदिक काल के पूर्व भो मानव प्रकृति की गोद में स्वच्छन्द आनन्द अवश्य ही लेता रहा होगा। उसकी कृपा से तथा संत्रास से सुखी एवं दुःखी भी अवश्य होता रहा होगा । परन्तु वैदिक कवि तो आनन्द-विभोर होकर ही रस की शक्ति का गान करता रहा है
वाग्वदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम् । (विविध वाक्-कौशलों की प्रधानता होते हुए भी इसकी (महाकाव्य की) आत्मा तो रस ही हैं ।) यहाँ अग्निपुराणकार स्पष्ट रूप से कह रहा है कि आत्मा रस ही है-अर्थात् सापेक्षिक दृष्टि से रस की ही महत्ता असन्दिग्ध है। इसी प्रकार समस्त वैदिक रचनाओं में कवित्व की पूर्णता एवं सरसता का पूर्ण साम्राज्य है। क्योंकि याग आदि में वैदिक-मन्त्रों का गान होता ही था, जो कि अत्यन्त सरस होता है। फिर भी वैदिक-काल में रस की जैसी स्थिति व मान्यता थी, उससे बहुत बदले हुए रूप में आज वर्तमान समय में रस की मान्यता स्थापित है। वर्तमान में तो रस को ब्रह्मानन्द का हो वाचक मानते हैं ।
१. अग्निपुराण, ३३७/३३ । Jain Education International
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