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१०४ : जैनमेघदूतम्
साध्य है । इसीलिए सखियों द्वारा बहुविध समझाई जाने पर अपनी कामजनित मोह - पीड़ा का बोध रूपी शस्त्र से हनन कर राजीमती जब श्रीनेम के पास पहुँचती है, तो वे रैवतक पर्वत ( पिण्ड के आध्यात्मिक जगत्) के उच्चतम शिखर ( आनन्दमय कोश के उच्चतम स्तर) पर तप में लीन मिलते हैं ।
इसके अतिरिक्त मेघदूत जहाँ प्रत्यक्षतया सांसारिक विषय-वासनाओं के प्रति मानव - आसक्ति को अभिप्रेरित करता है, वहाँ जैनमेघदूतम् प्रत्यक्षतया लोक-जीवन का परिमार्जन कर उसको एक अध्यात्मपरक दृष्टि प्रदान करता है एवम् परोक्षतया काव्य-धरातल पर निर्वेद की रसपूर्ण अभिव्यंजना करता है, साथ ही जैन धर्म व दर्शन का व्याख्या भी करता है ।
इस तरह दोनों काव्यकारों की दृष्टिकोण परस्पर पूर्णतया भिन्न-भिन्न ही है । कालिदास जहाँ सांसारिक अनुभूतियों को अभिव्यंजना में संलोन हैं, वहाँ मेरुतुङ्ग आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यंजना में संलीन हैं । अतः यदि सांसारिक चित्तवृत्तियों की दृष्टि से देखा जाय तो कालिदासीय मेघदूत सर्वोत्तम है और यदि आध्यात्मिक चित्तवृत्तियों की दृष्टि से देखा जाय तो आचार्य मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूतम् सर्वोत्तम है । यहाँ हम निस्सन्देह कह सकते हैं कि सांसारिक भोगोपभोगों से मानव को दैहिक शान्ति कुछ बहुत चाहे अवश्य मिल जाये परन्तु उस शान्ति से वह पूर्ण तृप्त नहीं हो पायेगा; पूर्ण शान्ति के लिए तो उसे अपनी आध्यात्मिक चित्तवृत्तियों को ही शान्त करना होगा साथ ही इस नेक कार्य में अवलम्बन का हेतु भी कोई नेक आध्यात्मिक परिपाक से पुष्ट काव्य ही होगा और इसके लिए आचार्य मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूतम् पूर्णतया उपयुक्त होगा ।
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