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भूमिका : १०३ मनोवैज्ञानिकता पूर्ण प्राकृतिक चित्रण के प्रतिपादन में विशिष्ट दिखता है, वहाँ जैनमेघदूतम् मनौवैज्ञानिकता के साथ ही साथ ग्रीष्म, शीत, वसन्त आदि ऋतुओं के भी वर्णन को प्रस्तुत करते हुए प्राकृतिक चित्रणों को प्रस्तुत करता है। दोनों काव्यों में मेघ का महत्त्व भी प्रतिपादित है । दोनों काव्यों में काव्य-नायकों के प्रवासमूलक कारणों के सम्बन्ध में पर्याप्त विभिन्न मन्नता दृष्टिगोचर होती है । इसी के साथ ही कालिदासीय मेघदूत जहाँ काव्य में वर्णित क्षेत्र की भौगोलिकता को भी सुस्पष्ट करता मिलता है, वहाँ मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूतम् इस विषय में किंचिदपि वर्णन नहीं करता है ।
इस प्रकार कालिदासीय मेघदूत के कथा - शिल्प के परिप्रेक्ष्य में जब हम जैनमेघदूतम् के कथा- शिल्प पर सम्यक् दृष्टिपात करते हैं तो हमें जो स्पष्ट होता है, उसे संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं कि कालिदासीय मेघदूत में नायक यक्ष मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास सन्देश भेजता है, जबकि मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में नायिका राजोमती मेघ को दूत बनाकर अपने प्रिय के पास सन्देश भेजती है । मेघदूत में मेघ को गन्तव्य मार्ग भी विधिवत् बतलाया गया है, जबकि जैनमेघदूतम् में मेघ को गन्तव्य मार्ग न बताकर नायक श्रीनेमि का - जन्म से लेकर विवाह हेतु द्वार तक जाने का -- विस्तृत जीवन-चरित बतलाया गया है । कालिदासीय मेघदूत का यक्ष अपने सन्देश में जहाँ अपने विरह कातर हृदय की व्यथा सुनाता मिलता है, वहाँ मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् की नायिका राजीमती ने अपने सुविस्तृत सन्देश में श्रीनेमि को अधिक उपालम्भ ( ताने) ही दिया है, अपनी मनोव्यथा का उद्घाटन कम ।
मेघदूत का नायक यक्ष जहाँ अलकानगरी में स्थित निज प्रियतमा हेतु अति आतुर मिलता है, वहाँ जैनमेघदूतम् के नायक श्रीनेमि निज भार्या सहित समस्त भोग- ऐश्वर्य को त्याग, योगासक्त हो रैवतक पर्वत पर "केवल -ज्ञान" प्राप्ति हेतु उत्सुक मिलते हैं । मेघदूत का यक्ष जहाँ सांसारिक भोग-विलास में ही जीवन का सच्चा उपयोग सिद्ध करता मिलता है, वहाँ जैनमेघदूतम् के नायक श्रीनेमि भोग-विलास में आसक्त एवं शरणागत राजीमती को भी अपने साथ ही शाश्वत आनन्द के सर्वस्व मोक्ष का वरण करवाकर अनुपम तथा अव्यय सौख्यलक्ष्मी को प्राप्त करवाते मिलते हैं । श्रीनेमि में मानवता का वह उच्चादर्श मिलता है, जिसे भगवत्-तत्त्व कहा जा सकता है और जो एकमात्र साधक द्वारा ही
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