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१०२ : जैनमेघदूतम्
बतलाता है; वहीं जैनमेघदूतम् की नायिका राजीमती मेघ का स्वागत कर उसको, अपने स्वामी श्रीनेमि का जीवन चरित्र बतलाती है । यही कारण है कि कालिदासीय मेघदूत में जहाँ अतिशय भौगोलिक वर्णन मिलता है, वहाँ जैनमेघदूतम् में श्रीनेमि की जन्मावस्था, बाल्यावस्था एवं युवावस्था का चित्रण मिलता है । भौगोलिकता के क्षेत्र से जैनमेघदूतम् बहुत परे है । जबकि मेघदूत का भौगोलिक वर्णन, काव्य- रसिक के समक्ष पूर्णतया एक रेखाचित्र ही उपस्थित करता मिलता है ।
मेघदूत में मेघ को किस-किस मार्ग का अवलम्बन करना होगा और उसे क्या-क्या और कौन-कौन दृश्य देखने होंगे, उन सबका एक-एक करके यक्ष पूर्वमेघ में सविस्तार वर्णन करता है। रामगिरि से उत्तराभिमुख होकर ' जाते- जाते आम्रकूट पर्वत, नर्मदा नदी, विदिशा नगरी, वेत्रवती नदी", मालव की राजधानी उज्जयिनी और धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र आदि इन सबका अतिक्रमण कर मेघ को अपने वासस्थल अलका पहुँचने का यक्ष निर्देशन करता है । इस प्रकार मेघदूत में अत्यन्त गहन भौगोलिक वर्णन मिलता है। जबकि जैनमेघदूतम् में एक भी स्थल पर भौगोलिक वर्णन नहीं उपलब्ध होता है ।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर दोनों काव्यों के शिल्प-विधान एवं दौत्यकर्म में विभिन्नता हो दृष्टिगोचर होती है । जहाँ कालिदासीय मेघदूत १. स्थानादस्मात्स रस निचुलादुत्पतोदङ्मुखः खं । दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान् ॥
- मेघदूतम् : कालिदास, पूर्वमेघ १४ ( उत्तरार्द्ध) ।
२. त्वामासार प्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ध्ना । वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूटः ॥ ३. रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां ।
- वही, १७ (पूर्वाद्ध ) ।
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य ॥ - वही, १९ ( उत्तरार्द्ध)।
४ तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानी ।
वही, २४ (पूर्वार्द्ध) ।
गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा ॥ ५. तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात् ।
सभ्रूभङ्ग मुखमित्र पयो वेत्रवत्याश्चलोमि ॥ - वही, २४ ( उत्तरार्द्ध) ।
६. वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां । सत्सङ्गणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः ॥ ७. ब्रह्मावर्त जनपदमथच्छायया गाहमानः । क्षेत्र क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद्भजेथाः ॥
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- वही, २७ (पूर्वार्द्ध)
-वही, ४८ (पूर्वाद्ध ) ।
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