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- भूमिका : १०१ बाईसवें जिनपति भगवान् कहे जाते हैं।' अतः मेघदूत के यक्ष के समान जैनमेवदूतम् के नायक श्रीनेमि भी भोगयोनि ही हैं। . मेघदूत का नायक यक्ष अपनी प्रिया के साथ भोग-विलास में इतना रमा हुआ था कि उसे अपने कर्तव्य का भी बोध न रहा और कर्तव्यच्युत होने के कारण ही उसे यक्षपति कुबेर के शाप-वश एक वर्ष का प्रियाविहीन प्रवास प्राप्त हुआ। अतः यहाँ यह पूर्ण स्पष्ट होता है कि यक्ष का यह प्रवास, बलात् दिया गया प्रवास था, स्वयमेव अपने मन से लिया गया प्रवास नहीं। जबकि जैनमेघदूतम् के नायक श्रीनेमि, स्वयं चिदानन्द सुखप्राप्ति हेतु समस्त पाप-व्यापारों की मूलकारण कान्ता (राजीमती) का त्यागकर पर्वतश्रेष्ठ रैवतक पर प्रवास ग्रहण करते हैं। नायक-सम्बन्धी प्रवासमूलक कारण : . दोनों काव्य-नायकों का प्रवासमूलक कारण भी पूर्णतया भिन्न है। जहाँ मेघदूत का नायक यह प्रवासकाल प्रमादवश भोगता है. वहाँ जैनमेघदूतम् के नायक श्रीनेमि यह प्रवास स्वेच्छापूर्वक भोगते हैं। इस विषय में विशेष ध्यातव्य है कि कालिदासीय मेघदूत का नायक यक्ष जहाँ अपना प्रवासकाल पूर्ण कर पुनः अपनी प्रिया का समागम प्राप्त करता है, जैसा कि मेघदत के अन्तिम प्रक्षिप्त श्लोक से विदित होता है, वहाँ जैनमेघदत के नायक श्रीनेमि, अपने ही साथ काव्य-नायिका राजीमती को भी मोक्ष का वरण करवाते हैं।" भौगोलिकता :
कालिदासीय मेघदूत का नायक यक्ष जहाँ अपने सन्देश में, मेघ का सर्वप्रथम स्वागत-सत्कार कर उसको, अपनी प्रिया के पास जाने का मार्ग १. जैनमेघदूतम्, १/१५ । २. मेघदूतम् : कालिदास, पूर्वमेघ, १। ३. जैनमेघदूतम्, १/१ । ४. श्रुत्वा वार्ता जलदकथितां धनेशोऽपि सद्यः ।
शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायाऽस्तकोपः । संयोयन्तौ विगलितशुचौ दम्पती हृष्टचित्तो भोगानिष्ठानविरतसुखं भोजयामास शश्वत् ।।
-मेघदूतम् : कालिदास, उत्तरमेघ (२) ५४ । ५. सधोचोनां वचनरचनामेवमाकर्ण्यसाऽथो। पत्युानादवहितमतिस्तन्मयत्वं तथाऽऽपत् ।।
-जैनमेघदूतम्, ४/४२ (पूर्वार्द्ध)।
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