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भूमिका : ९७ विरह-सन्तप्त मानव-चित्त को दुःखो करने वाले मेघ के इसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को जैनमेघदूतम् में मेरुतुङ्ग ने "एकं तावद्विरहिहृदयद्रोहकृन्मेघकालो" कहकर स्पष्ट किया है। विरहिणी स्त्रियों को इस मेघकाल में होने वाले कष्ट का, जैनमेघदूतम् के एक स्थल पर अति मनोवैज्ञानिक चित्रण है-“वर्षाकाल में स्वभाव से ईर्ष्यालु स्त्रियाँ अपने शोक को उत्पन्न करने वाले मेघ से जो ईर्ष्या करती हैं, वह ठीक ही है। क्योंकि नीलतुल्य जब यह मेघ श्याम वर्ण हो जाता है, तो वे भी मुख को श्याम बना लेती हैं (मुख मलिन होने से श्याम हो जाता है) । जब यह मेघ बरसता है तो वे भी अश्रु बरसाती हैं । जब यह मेघ गरजता है, तो वे भो चातुर्यपूर्ण कटु-विलाप करती हैं और जब यह मेघ विद्युत् चमकाता है, तो वे भी उष्णनिःश्वास छोड़ती हैं।"
प्रायः देखा जाता है, इन मेघों के आते ही समस्त जीव-जन्तु, प्राणी आदि प्रसन्न हो जाते हैं। यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ही है। इसी मनोवैज्ञानिकता को दोनों काव्यों में व्यक्त किया गया है। मेघ के आते ही वे स्त्रियाँ, जिनके पति विदेश में होते हैं, उन मेघों को बहुत व्यग्रतापूर्वक देखती हैं; कारण उनके पतियों के आगमन के वे पूर्व-सूचक जो होते हैं। जबकि जैनमेघदूतम् में ये ही मेघ, राजा और प्रजा के लिए प्रसन्नतादायक हैं; क्योंकि राजा और प्रजा दोनों इस मेघ पर ही बहत अंश तक आश्रित हैं। इन मेघों के आते ही मयूरी भी अपने प्रिय के साथ संयोग की पूर्व-कल्पना से नाच उठती है।५ मेघ-आगमन पर समस्त प्राणियों की मनोवैज्ञानिक-स्थिति का कितना विचित्र दिग्दर्शन हआ हैकालिदासीय मेघदूत एवं जैनमेघदूत में। सामान्यतः मेघ के गर्जन और उसकी विद्युत्-चमक से प्रत्येक व्यक्ति एक बार काँप ही जाता है और उसके नेत्र अनायास एक बार निमीलित ही हो जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि मेघागमन से प्राणियों पर होने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों का, मेघदूत एवं जैनमेघदूतम् दोनों ही काव्यों में सूक्ष्मता के साथ चित्रण हुआ है, जो प्रशंसनीय है।
१. जैनमेघदूतम्, १/४ । २. वही, १/६ । ३. मेघदूतम् : कालिदास, पूर्वमेध, ८ । ४. जैनमेघदूतम्, ३/२४ । ५. वही, ४/९ ।
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