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९६ : जेनमेघदूतम् रूप में स्वीकृत करता है; वहाँ जैनमेघदूतम् में नायिका राजीमती मेघ को दूत के रूप में स्वीकार करती है। यक्ष मेघ के प्रति पूर्ण विश्वस्त है । मेघ यक्ष का यह सन्देश उसकी प्रिया तक पहुँचाता भी है । मेघ द्वारा यक्ष का सन्देश-सम्प्रेषण तथा उसका यक्षकान्ता के पास पहुँचना जानकर धनपति कुबेर का क्रोध शान्त हो जाता है और वे, दोनों (यक्ष-यक्षिणी) का सम्मिलन करवा देते हैं। इस प्रकार कालिदासीय मेघदूत का मेघ अपना दौत्यकर्म पूरा करता है। जबकि जैनमेघदूतम् में राजीमती सचेत होकर मेघ को दूत के रूप में चुनकर उसका स्वागत करती है और फिर अपना सन्देश सुनाने लगती है। काव्य की समाप्ति तक वह मेघ को अपने सन्देश में, श्रीनेमि का पूरा चरित्र ही सुना डालती है। अन्त में सखियों के वचनों को ग्रहण कर श्रीनेमि के पास स्वयं पहुँच जाती है और उनके साथ स्वयं भी वीतराग-भावना से मोक्ष का वरण कर लेती है।
इस काव्य के दौत्यकर्म के विषय में हम देखते हैं कि मेघ, राजीमती का सन्देश ही सुनता रह जाता है। वह उसका सन्देश लेकर, कालिदास के मेघ के समान श्रीनेमि के पास तक पहुँचता ही नहीं, नेमि के पास जाकर सन्देश सुनाना तो बहुत ही दूर रहा। इस प्रकार जैनमेघदूतम् में मेघ का दौत्यकर्म अधूरा ही रह जाता है ।
कालिदास और मेरुतुङ्ग दोनों ने अपने-अपने काव्यों में मेघ का पर्याप्त महत्त्व व तद्विषयक बहुविध ज्ञान प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। इस प्रयास के अन्तर्गत दोनों कवियों ने मेघ के मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक प्रभावों को स्पष्ट किया है। मनोवैज्ञानिकता : ___ साधारणतः सामान्य मेघ-दर्शन भी प्रत्येक सहृदय मानव-चित्त को विकृत कर देता है, फिर आषाढ के प्रथम दिन के मेघ का क्या कहना ! तभी न, आषाढ के इस प्रथम दिन के मेघ को देखकर यक्ष भी सुस्थिर न रह सका' । यक्ष की इस अस्थिरता के प्रति कालिदास ने, मानव-स्वभाव पर पड़ने वाले मेघ के मनोवैज्ञानिक प्रभाव को वणित करते हुए कहा है कि जब उत्कण्ठा उत्पन्न करने वाला यह मेघ सुखी व्यक्ति के चित्त को विकृत कर देता है, तब भला यक्ष का चित्त कैसे अविकृत रह जाता, वह तो आठ माह से अपनी प्रिया से दूर विरहाग्नि में जल रहा था। १. मेघदूतम् : कालिदास, पूर्व मेघ, २ । २. वही, ३।
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