________________
भूमिका : ९५
में रखने का प्रयास किया जा सकता है । परन्तु महाकाव्य के समस्त लक्षणों को यह दूतकाव्य पूर्ण नहीं कर पाता है । इसमें मात्र चार ही सर्ग हैं, जबकि एक महाकाव्य के लिए कम से कम आठ सर्गों का होना आवश्यक ही है । वैसे महाकाव्य के कुछ अन्य लक्षणों को यह पूरा भी करता है, जैसे—- सर्गबन्ध रूप इस दूतकाव्य में नायक देवविशेष श्रीनेमि ही हैंउन्हीं का इसमें चरित्र भी प्रतिपादित है । इस काव्य में शृङ्गार, वीर, शान्त रसों का समयोग तो है, परन्तु इनमें प्रधान कौन है और गौण कोन है, यह निश्चय अति दुश्शक है; क्योंकि तीनों ही रस समभाव में विद्यमान हैं । अतः महाकाव्य का यह लक्षण इसमें लागू नहीं हो सकता है, अन्य सभी रस प्रधान रस की अपेक्षा गौण रूप से अभिव्यक्त होंगे । इसी प्रकार महाकाव्य के अन्य लक्षण भी इसमें प्रतिपादित नहीं मिलते हैं, इसलिए इसे महाकाव्य की कोटि में भी नहीं रखा जा सकता है ।
इस काव्य को मात्र "काव्य" की ही कोटि में रखा जा सकता है, जिसमें ऐसी कोई शर्तें नहीं होती हैं । साहित्यदणकार " काव्य" का लक्षण इस प्रकार देते हैं- "काव्य" पद्य - प्रबन्ध का वह प्रकार है, जो संस्कृत, प्राकृत अथवा अपभ्रंश भाषा में निबद्ध किया जा सकता है, इसमें सर्गों का बन्ध आवश्यक नहीं, साथ ही इसमें सन्धिपंचक भी अनिवार्य नहीं होता है । इसकी रूपरेखा "एकार्थप्रवण" अर्थात् एक वृत्त या चरित्र से सम्बद्ध हुआ करती है । परन्तु जैनमेघदूतम् को मात्र " काव्य" कहने से हमारा मन्तव्य स्पष्ट नहीं हो पाता है, इसी कारण इसके दौत्यकर्म के आधार पर इसको कालिदासोय मेघदूत के समान ही "दूतकाव्य" से अभिहित किया गया है ।
दौत्यकर्म में भिन्नता :
इन दोनों दूतकाव्यों में सम्पादित दौत्यकर्म भी परस्पर पूर्ण भिन्न हैं । हम देखते हैं कि कालिदासीय मेघदूत में जहाँ नायक यक्ष मेघ को दूत
१. नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह ।
- साहित्यदर्पण, ६ / ३२० । २. सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्र को नायकः सुरः । - वही, ६/३१५ । ३. शृङ्गारवीरशान्तानामेकोऽङ्गी रस इष्यते ।
अङ्गानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः ।। वही, ६/३१७ | ४. भाषाविभाषानियमात्काव्यं सर्गसमुज्झितम् ।
एकार्थप्रवणैः पद्यैः संधिसामग्रयवजितम् ॥ - वही, ६ / ३२८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org