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जैनमेघदूतम् का कथा- शिल्प (कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में)
जैनमेघदूतम् - काव्य की कथा - शिल्प सम्बन्धी विशेषताओं के स्पष्टीकरण हेतु हम यहाँ पर कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में उसका आकलन करने का प्रयत्न करेंगे। इस स्पष्टीकरण हेतु हम यहाँ पर कालिदासीय मेघदूत के साथ जैनमेघदूतम् की कथा - विषयक विभिन्नताओं का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
काव्य-शिल्प-विधान:
सर्वप्रथम कालिदासीय मेघदूत एवं जैनमेघदूत की कथावस्तु के शिल्पविधान में ही पर्याप्त विभिन्नता मिलती है । प्रायः समस्त विद्वानों ने कालिदासीय मेघदूत को खण्डकाव्य स्वीकार कर लिया है । खण्डकाव्य के समस्त लक्षण इसमें प्राप्त भी होते हैं- "महाकाव्य के एक भाग का अनुसरण करने वाले काव्य को खण्डकाव्य कहते हैं । इसमें समूचा चरित्र वर्णित न होकर उसके एक ही भाग का वर्णन होता है ।" "
खण्डकाव्य के इस लक्षण के आधार पर मेघदूत को खण्डकाव्य की कोटि में रखने पर यह स्पष्ट होता है कि इसमें यक्ष का समूचा चरित्र वर्णित न होकर मात्र उसकी वियोगावस्था का ही वर्णन हुआ है । अतः कालिदास का मेघदूत खण्डकाव्य की कोटि में स्पष्ट रूप से रखा जाता है। जबकि इसके विपरीत आचार्य मेरुतुङ्ग का जैनमेघदूत न तो पूर्ण रूप से खण्डकाव्य की सीमा में ही समाहित हो सका है और न महाकाव्य की ही सीमाओं तक पहुँच सका है ।
इसीलिए जैनमेघदूतम् स्पष्ट रूप से न तो खण्डकाव्य ही कहा जा सकता है और न महाकाव्य ही ।
खण्डकाव्य के लक्षणानुसार इसमें चरित्र के एकांश का वर्णन न होकर श्रीनेमि का समूचा चरित्र वर्णित मिलता है, अतः इसे महाकाव्य की श्रेणी १. खण्डकाव्यं भवेत् काव्यस्यैकदेशानुसारि च ।
-- साहित्य दर्पण, ६ | ३२९ ।
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