________________
९२ : जनमेघदूतम् राजीमती ने अत्युत्तम ढंग से व्यंजनापूर्ण शेली में अपनी विरह-व्यथा की अभिव्यंजना की है। पर राजीमती की सखियाँ, उसकी विरहवेदना तथा उसके सन्देश-कथन को देखकर उसे बहुत समझाती हैं तथा इस सारे दोष का कारण मोह ही है, ऐसा बतलाती हैं ।' ___ तत्पश्चात् राजीमती की सखियाँ राजीमती को अनायास उत्पन्न इस महामोह को बोधरूपी शस्त्र से नष्ट कर डालने का परामर्श देती हैं और उसके बाद वे सखियाँ प्रभु श्रीनेमि की विशेषताओं का वर्णन करती हुई राजीमती को समझाती हैं कि-“हे बुद्धिमति ! रंगरहित पाषाणखण्डों को रंगीन बनाती हुई उस वरवणिनी को देख यह न विश्वास कर लो कि मैं भी तो वरवणिनी है, अतः मैं भी भगवान् श्रीनेमि को रागरंजित कर लंगी, क्योंकि वह पाषाण तो नाम से ही चूर्ण है पर ये भगवान् श्रीनेमि, वह अकृत्रिम हीरा हैं, जिसे अधिक चटकीले रंगों से भी नहीं रंगा जा सकता है।"
इस प्रकार राजीमती अपनी सखियों के उक्त वचनों को सुनकर शोक का त्याग कर देती है और अपने पति के ध्यान से सावधान बुद्धिवाली होकर वह तन्मयत्व (स्वामिमयत्व) को प्राप्तकर, केवल-ज्ञान को प्राप्त, अपने स्वामी प्रभु श्रीनेमि की शरण में जाकर व्रतग्रहण कर लेती है और अपने स्वामी के ध्यान से स्वामी की ही तरह रागद्वेषादि से रहित होकर, स्वामी के प्रभाव से गिने हुए कुछ ही दिनों में परम-आनन्द के सर्वस्व मोक्ष का वरण कर अनुपम तथा अव्यय सौख्य लक्ष्मी को प्राप्त कर शाश्वत् सुख का उपभोग करती है।
इस प्रकार शृङ्गारपरक इस दूतकाव्य का शान्तरस में पर्यवसान कर तथा तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ जैसे महापुरुष को अपने काव्य का नायक बनाकर आचार्य मेरुतुङ्ग ने रसज्ञ-जनों के समक्ष शान्त रस का एक अप्रतिम आदर्श प्रस्तुत कर दिया है। यह शान्त रस ही एक मात्र ऐसा रस है, जो तृष्णाओं का क्षय करता है, मनुष्यों को मानव-धर्म की स्मृति
१. जैनमेघदूतम्, ४/३८ । २. वही, ४/३९ । ३. वही, ४/४०। ४. वही, ४/४१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org