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________________ भूमिका : ९१ होने पर शरद्-ऋतु में सर्वांगविभूषित श्रीनेमि को राजीमती ने गवाक्ष से वन-कानन जाते हुए इस प्रकार देखा जिस प्रकार कमलिनी जल से जाने वाले रवि को देखती है। अपने प्रभु श्रीनेमि को अपने सामने ही वन जाते देखकर राजीमती प्रबल व विषम विरहपीड़ा से मच्छित हो ही रही थी कि उसकी सखियों ने शीतोपचार द्वारा उसे सचेत किया। तदनन्तर "अब मैं उनके द्वारा कीचड़ से गीले हुए वस्त्र की तरह त्याग दी गयी हूँ" इस विचार से अपार शोकपूरित होकर राजीमतो शोकजलपूर्ण-कुम्भ की भाँति हो गयी। ___ अपने स्वामी के जगज्जीवातु दर्शनों के पान से पुष्ट और अब उच्छवास व्याज से धमायमान राजीमती का हृदय चने की तरह फूट-फूट चूर्णित हो रहा था । तत्पश्चात् वह अपनी विरहपूर्ण दीनावस्था का मार्मिक वर्णन करती हुई मेघ से अपने हर्षवर्द्धक उन मुनीन्द्र श्रेष्ठ तक अपना सन्देश पहुँचाने का अनुरोध करती है और कहती है कि जब वह भगवान् शमजन्य सुखरस के पान से चिदानन्द पूर्ण हो कुछ-कुछ आँखें खोलें, तभी तुम उनके चरणों में भ्रमरलीला करते हुए प्रियम्वद व अखिन्न होकर मृदुवचनों से सन्देश कहना कि जो निष्पापा में ईश द्वारा पहले स्वीकर की जाकर स्त्रियों की मुकुटायित बना दी गयी थी, आज वही राजीमती आप द्वारा दूर हटायी जाने पर शोकरूपी क्षार-समुद्र से संगत होने से दुःखी चित्त वाली होकर आपसे निवेदन करती है। इसप्रकार अन्त में राजीमती अपने स्वामी श्रीनेमि के प्रति अपना विस्तृत सन्देश बतलाती है । अपने इस सुदीर्घ सन्देश में राजीमती ने श्रीनेमि से अधिकाधिक रूप से जवाब-तलब ही किया है और अपने हृदय का उद्घाटन कम । फिर भी १. जैनमेघदूतम्, ४३-४ । २. वही, ४/६ । ३. वही, ४/७ । ४. वही, ४/८-१०। ५. वही, ४/११ । ६. वही, ४/१३ । ७. वही, ४/१४ । ८. वही, ४/१५-३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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