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९० : जैनमेघदूतम् गण पृथ्वी-आकाश को भी रुलाते हुए रोने लगे। यादवगण अभी रो ही रहे थे कि डिण्डिमघोष के साथ प्रातः श्रीनेमि ने वार्षिक-दान प्रारम्भ कर दिया। __राजीमती मेघ से आगे कहती है कि हे मेघ ! अपने प्राणेश्वर के विवाह-भूमि से लौट जाने पर, उस समाचार से उत्पीडित, मैं वल्लरी की भाँति गिर पड़ी और उस समय उत्पन्त दुःखरूपी ज्वार-भार वाली मैंने मूर्छा-समुद्र में डूबकर किञ्चित् सुख सा अनुभूत किया। उस मूर्छा-समुद्र . में ही डूबने से शायद मुझे कोई अत्यधिक कम्पन से युक्त ताप उत्पन्न हुआ है जिसके कारण मैं ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रही हूँ। राजोमती मेघ से आगे कहती है कि उस समय मुझे अपनी सखियों की यह वाणी-"ह सखि! यदि वे अग्नि तथा पूज्यजनों के समक्ष विवाह करके फिर तुम्हें छोड़ते, तब तो नाव को समुद्र में छोड़कर डूबा ही देते, परन्तु अभी तो अधिक गुणवान् कोई अन्य राजपुत्र तुम्हारा विवाह कर ही लेगा"-हमें जले पर नमक के समान लगी | परन्तु भारतीय नारी के एक-पतित्व के आदर्श का पालन करने वाली राजीमती ने योगिनी की भाँति उन प्रभु श्रीनेमि के ध्यान में ही सारा जीवन काट डालने की अपनी उन सखियों के समक्ष ही प्रतिज्ञा कर ली। __वह मेघ से आगे कहती है कि यद्यपि अखिलविश्वपूज्य मेरे पति वे श्रीनेमि इस विवाहोत्सव को उसी भाँति असमाप्त छोड़कर चले गये जैसे तुम (मेघ) धारावृष्टि को छोड़कर चले जाते हो, परन्तु फिर भी मैं गृहस्थावस्था तक उनकी उसी प्रकार अपने हृदय में आशा लगाये रही, जिस प्रकार प्रजा पुनः वर्षानक्षत्र के आने तक तुम्हारी आशा लगाये रहती है। चतुर्थ सर्ग कथा :
चतुर्थ सर्ग में मुख्य रूप से विरहविवशा राजीमती द्वारा पतिविरहिता स्त्री की दशाओं का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम राजीमती श्रीनेमि के दान की महिमा व प्रशंसा सुनाती है । तत्पश्चात् एक वर्ष पूर्ण
१. जैनमेघदूतम्, ३/५१-५२ । २. वही, ३/५३ । ३. वही, ३/५४ । ४. वही, ३/५५ । ५. वही, ४/१-२
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