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भूमिका : ८९ मायान्त्यस्मै सखि ! सुखयितुं किं न चक्षूंषि युक्तम् ?" -- इस वचन का बहुमान करती मैं गवाक्ष पर चढ़ गयी । उन आयुष्मान् के दर्शन होते ही मुझमें मोह का इतना महासमुद्र उमड़ा कि उस समुद्र की तरंगमाला से चंचलचित्तवाली तथा जड़ीभूत-सी होकर मैं क्षणभर के लिए ' मैं कौन हूँ ? वह कौन हैं ? मैं क्या कर रही हूँ ? आदि कुछ भी न जान सकी । राजमती अभी इसी ऊहापोह में थी कि तभी उसके दाहिने नेत्र ने फड़ककर भाग्याभाव के कारण उसके मनोरथ रूपी कमलसमूहों को संकुचित बना दिया । इस घटना से घबराई हुई उसकी सखियाँ जब तक उसे कुछ समझा सकें, इसके पूर्व ही भगवान् श्रीनेमि ने बारातियों को दिये जाने वाले सुस्वादु भोजन के निमित्त लाये गये पशुओं के करुण-आर्तनाद को सुना । महावत से पूछने पर प्रभु श्रीनेमि को ज्ञात हुआ कि इन पशुओं के मांस से विवाह भोज का शोभासम्भार बढ़ाया जायेगा । इतना ही नहीं महावत ने यह निश्चयकर कि इन निरीह पशुओं को छुड़ाकर मैं दीक्षा प्राप्त कर लूँगा, बन्धमोक्षसमर्थ प्रभु श्रीनेमि को उस पशु-समूह के पास पहुँचा भी दिया। श्रीनेमि ने दीनता से ऊपर देखते हुए एवं मजबूत बँधे हुए उन नभचर, पुरचर व वनचर जन्तुओं को छुड़वा दिया और अपने हाथी को गिरिनगर से प्रत्यावर्तित कर अपने भवन के सामने ले आये ।
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श्रीनेमि के माता-पिता तथा श्रीकृष्ण आदि चिरभिलषित - महोत्सव से निवृत्त श्रीनेम को वाष्पपूरित नेत्रों से देखते हुए उनके इस अकारण पाणिग्रहण के त्याग का कारण पूछने लगे । भूरि-भूरि आग्रह करने पर श्रीनेमि ने सभी को यह कहकर निवारित कर दिया कि "इस तपस्या (दीक्षा)
बिना कोई भी स्त्री निश्चित ही बाबाओं को दूर नहीं कर सकती, जिसका फल सदैव सुखकारी हो । सज्जनों का वही कार्य श्लाघ्य होता है, मैं कर्मपाश से बँधे हुए प्राणियों को इन्हीं पशुओं के समान ही मुक्त करूँगा ।" यह ज्ञात होते ही कि "श्रीनेमि व्रत ही ग्रहण करेंगे" यादव
१. जैनमेघदूतम्, ३/३७ ।
२. वही, ३/३९ ।
३. वही, ३/४० |
४. वही, ३४१ |
५. वही, ३ / ४३ । ६. वही, ३ / ४४ ७. वही, ३ / ४८ |
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