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८८ : जैनमेघदूतम् ___ ग्रंष्म-ऋतु-वर्णन' के पश्चात् राजीमती श्रीकृष्ण के साथ श्रीनेमि को लीलोपवन में जल-केलि का वर्णन प्रस्तुत करती है। तृतीय सर्ग कथा : - तृतीय सर्ग में श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव एवं गृहत्याग का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम राजीमती मेघ से लीलोपवन में जल-केलि कर उसमें से निकले हुए श्रीनेमि की शोभनीय अप्रतिम शोभा का वर्णन करती है। जलार्द्र वस्त्रों का त्यागकर रुक्मिणी द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठने के पश्चात् श्रीकृष्ण की पत्नियाँ, श्रीकृष्ण स्वयं एवं बलदेव आदि सभी श्रीनेमि को पाणिग्रहण हेतु बहुत समझाते हैं। अपने ज्येष्ठ एवं आदरणीय जनों के वचनों का तिरस्कार तथा निरादर न करते हुए श्रीनेमि उन समस्त अग्रजों की आज्ञा को शिरोधार्य कर लेते हैं ।" तब श्रीकृष्ण सहर्ष महाराज उग्रसेन से राजीमती को श्रीनेमि के साथ पाणिग्रहण हेतु मांगते हैं।
श्रीनेमि के विवाह का सुसमाचार ज्ञात होने पर श्रीसमुद्र एवं शिवा देवी अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। पूरे नगर में विवाह-सम्बन्धी तैयारियाँ होने लगीं। विवाह-मण्डप नानाभाँति सजाया गया। दिन-रात मधुर वाद्ययन्त्र एवं यदुस्त्रियों के अविश्रान्त-स्वर गुञ्जरित हो उठे । वर-वधू दोनों ही पक्षों में पधारे अतिथियों का यथाविधि स्वागत-सत्कार हो रहा था। तत्पश्चात् श्रीनेमि मतवाले राजवाह्य पर आरूढ़ होकर अपने सभी सम्बन्धी बन्धु-परिजन के साथ विवाह हेतु चल पड़े। विवाह हेतु सुसज्जित श्रीनेमि की शोभा को देखने हेतु पुरवासी अत्यन्त व्यग्र से थे।
इस प्रकार विवाह हेतु आ रहे श्रीनेमि का वर्णन करती हुई राजीमती मेघ से आगे कहती है कि नान्दीरव को सुनते ही पाणिग्रहण योग्य वेश को धारण की हुई मैं उन श्रीनेमि को देखने के लिए अति व्याकुल हो उठी। तभी सखियों के–“पेञ्जूषेषु स्वविषयसुखं भेजिवत्सत्सुखकाया१. जैनमेघदूतम्, २/३०-३५ । २. वही, २/३६-४९ । ३. वही, ३/१-२ । ४. वही, ३/३-२० । ५. वही, ३/२१ । ६. वही, ३/२३ । ७. वही, ३/२४-२८ । ८. वही, ३/३५ ।
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