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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
और उन्होंने उसे चार नियम बतलाये । भविष्य में वङ्कचूल के लिए उन नियमों के अति शुभ फल हुए ।
सुस्थिताचार्य के दोनों शिष्यों - धर्मऋषि और धर्मदत्त ने भी बङ्कचूल को उपदेश दिये जिनके फलस्वरूप वङ्गचूल ने चर्मण्वती के किनारे चैत्य निर्माण और महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की । तब से वह तीर्थस्थल रूढ़ हो गया । वही सिंहगुहापल्ली कालक्रम से ढींपुरी कही जाने लगी ।
एक बार राजा वङ्कचूल ने ग्रीष्मऋतु में एक गाँव लूटने का असफल प्रयास किया । भूख-प्यास और गर्मी से व्याकुल उसके सैनिकों ने अज्ञात फल खा लिये और महानिद्रा में लीन हो गए । परन्तु वङ्कचूल को पहला नियम याद था । चूँकि उसने अज्ञात फल नहीं खाया था, वह बच गया ।
तत्पश्चात् राजा वङ्कचूल अपनी रानी के चरित्र को जानने के लिए महल में छिपकर प्रविष्ट हुआ । उसे पर-पुरुष के साथ प्रत्यंक पर सोई देखकर ज्यों ही वङ्कचूल ने तलवार खीचीं, उसे दूसरे नियम की स्मृति हुई । सात-आठ कदम पीछे हटते ही तलवार दरवाजे से टकराई । पुरुषवेश में सोई बहन पुष्पचूला जगी, जिसे देखते ही वङ्ककूल का रोष जिज्ञासा में बदल गया ।
एक दूसरे अवसर पर वङ्कचूल चोरी करने की नीयत से उज्ज़विनी गया । वहाँ की अग्रमहिषी उसके सौन्दर्य पर न्यौछावर हो गयी । उसी समय वङ्कचूल को अपनी तृतीय प्रतिज्ञा का स्मरण हुआ । वङ्कचूल के उत्कृष्ट चरित्र से उज्जयिनी का राजा प्रभावित बङ्कचूल को सामन्त- पद प्रदान किया और उज्जयिनी के निकटवर्ती शालिग्राम निवासी श्रावक जिनदास ने बङ्कचूल से मैत्री की ।
हुआ । उसने
तदनन्तर उज्जयिनी के राजा ने वङ्कचूल को कामरूप' विजय के
१. ( १ ) अज्ञात फल-भक्षण न करना, (२) सात-आठ कदम पीछे हटे बिना किसी पर आघात न करना, ( ३ ) पटरानी को माता के समान मानना तथा ( ४ ) काक- मांस भक्षण न करना ।
२. महाभारत काल में प्रागु-ज्योतिष ( कामरूप ) का शासक ( किरात
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