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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन
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में काराकोरम के नाम से जाना जाता है और यह गुर्जराधिपति राजा वीसलदेव के धवलक्क नगर से काफी दूर पड़ता है । यह विजय नगर का कृष्णपुर भी नहीं हो सकता है क्योंकि कृष्णपुर को कृष्णराय ने बसाया था, जो बहुत बाद की घटना है ।" कृष्णनगर ललितविस्तर में वर्णित कृष्णग्राम हो सकता है जो कपिलवस्तु के समीप स्थित था । कुछ विद्वानों ने इसका समीकरण उस स्थान से किया है जहाँ गौतम ने अपना राजसी वस्त्र, केश और कृपाण आदि का त्याग किया था।
राजशेखर की मान्यता है कि अमरचन्द्र अरिसिंह का शिष्य था । यह युक्तिपूर्ण नहीं प्रतीत होती है। ये दोनों सहपाठी थे । अरिसिंह का दावा अमरचन्द्र का ललित कलागुरु होने तक ही सीमित है ।
अमरकवि प्रबन्ध राजशेखर का मौलिक प्रबन्ध है जिसमें वह उस राजसभा का सजीव चित्रण करता है जहाँ विद्वानों का समागम राजसभा का महत्वपूर्ण अंग समझा जाता था । १३३७ ई० में महेन्द्र के शिष्य मदनचन्द्र ने अमरचन्द्र की एक प्रतिमा अणहिलवाड़ा में स्थापित की थी । यद्यपि अमर किसी जैन गच्छ का नायक या आचार्य नहीं था, तथापि जैन मन्दिर में उसकी प्रतिमा की प्रतिष्ठापना और पूजन उसके महत्व का परिचायक है । १४. मदनकीति प्रबन्ध
कवि मदनकीर्ति उज्जयिनी के विशालकीर्ति दिगम्बर के शिष्य थे । वे तीनों दिशाओं के वादियों को जीतकर 'महा प्रामाणिक-चूड़ामणि' का विरुद अर्जित कर उज्जयिनी लौटे । गुरुवचन का उल्लंघन कर विद्याभिमानी मदन दक्षिण के वादियों को जीतने कर्णाट पहुँचे ।
वह वहाँ विजयपुर में कुन्तिभोज की राजसभा में प्रविष्ट हुए । वहाँ मदन और राजकुमारी मदनमञ्जरी के बीच यवनिका रहते हुए भी मदन ने राजकुमारी से ऐसा ग्रन्थ लिखवाना शुरू किया जो राजा
१. इपि० इण्डि० प्रथम, ३९८ ।
२. लॉ : हि० ज्यो०, पृ० ११८ |
३. जिनविजय ( सम्पा० ) : प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग २, सिजैन,
बम्बई, सं० ५२३ |
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