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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
अनेक ग्रन्थों की रचनाकर श्रीहर्ष कन्नौज राजसभा में पहुँचे । उनका आगमन सुनकर राजा ने मन्त्री, राजसभा के विद्वानों आदि के साथ जाकर नगर परिसर में श्रीहर्ष का स्वागत सत्कार किया । पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर सत्गुरु से तर्क, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वेदान्तादि दर्शन, योगशास्त्र और मन्त्रशास्त्र का सम्यक् अध्ययन किया । अन्ततः उन्होंने 'खण्डन खण्डखाद्य' की रचना करके उदयन का मद चूर्ण किया ।
जब हर्षकवि ने राजाज्ञा से नैषध महाकाव्य रचकर राजा को दिखलाया तब राजा ने हर्ष से कहा कि कश्मीर जाकर वहाँ के राजा से ग्रन्थ के अभिनन्दित होने का प्रमाण-पत्र लाओ । महीनों बाद हर्ष - कवि ग्रन्थ की शुद्धता का राजमुद्रा प्रमाणित लेख लेकर काशी लौटे ।
इसी बीच राजा की अभिषिक्त देवी के मेघचन्द्र पुत्र और सूहवदेवी के दुर्विनीत पुत्र उत्पन्न हुआ । मन्त्री विद्याधर ने राजा से सत्पुत्र मेघचन्द्र को राज्य देने की सम्मति दी, न कि पुनधृता पुत्र को । क्रुद्ध सूहवदेवी ने गंगा में डूबकर प्राण त्याग दिया । उधर सुरत्राण काशी पहुँचा, उसे नष्ट-भ्रष्ट किया और यवनों ने नगरी को खूब लूटा |
हर्ष कवि की जीवनी राजशेखर को छोड़कर किसी प्राचीन विद्वान् ने नहीं लिखी है और न किसी ग्रन्थ में मिलती है । हर्षकवि प्रबन्ध राजशेखरसूरि की मौलिक रचना है। इस प्रबन्ध में उसके रोमाण्टिक पक्ष का वर्णन किया गया है किन्तु उसकी सामरिक और राजनीतिक उपलब्धियों को छोड़ दिया गया है । उसमें कहा गया है कि 'यस्य गोमती दासी' । गोमती के तटवर्ती भू-भाग उसके अधिकार में थे । परन्तु कुमारदेव प्रबन्ध में काशीपति जयन्तचन्द्र और सेनवंशीय लक्षणसेन के बीच शत्रुता का उल्लेख मिलता है ।
राजसभा से श्रीहर्ष के सम्पर्क का प्रमाण प्रबन्धकोश में है और स्वयं नैषध की ग्रन्थ- प्रशस्ति में उल्लेख है कि दो बीड़े पान के साथ कान्यकुब्जाधिपति ने उसका सम्मान किया । ऐतिहासिक दृष्टि से श्रीहर्ष के ग्रन्थ मूल्यहीन होते हुए भी नैषध की गणना 'बृहत्त्रयी' में की जाती है । नैषध उदात्त परम्परा और निचले सांस्कृतिक धरातल, ऊँचे और घटिया सौन्दर्य का संकुल मिश्रण है ।
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