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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन
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सिद्धराज को प्रबुद्ध किया। परन्तु सिद्धराज-प्रतिबोध के विषय में हेमचन्द्र स्वयं मौन हैं। प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग और जयसिंहसूरि ने संकेत तक नहीं किया है। इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र का प्रवेश धार्मिक उद्देश्य से अभिप्रेरित कदापि नहीं था। सिद्धराज शैव था और आजीवन शैव रहा। परन्तु कुमारपाल के सिंहासनासीन होने पर हेमचन्द्र का प्रभाव बढ़ा। हेमचन्द्र 'कलिकालसर्वज्ञ' हुए और कुमारपाल परमाहत । इन परिस्थितियों को हेमचन्द्र ने नकद भुनाया, खूब धर्म-प्रचार किया। हेमचन्द्र से 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' को सोने-रूपे से लिखाकर सुना। एकादश अंग, द्वादश अंग, योगशास्त्र आदि लिखवाये गये। अभिधानचिन्तामणि, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, देशीनाममाला, द्वयाश्रयकाव्य, परिशिष्टपर्व आदि अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।
८४ वर्ष की वय में हेमचन्द्र ने प्राण त्याग किया, किन्तु 'हेमचन्द्र का युग' आज भी उनकी कृतियों में जीवन्त है। अतः निष्कर्ष निकलता है कि हेमचन्द्र का सम्बन्ध सिद्धराज के साथ उतना ही दीर्घकालिक ( ३० वर्षों का ) था, जितना कुमारपाल के साथ । परन्तु दोनों सम्बन्धों में अन्तर यह था कि कुमारपाल उन्हें सदैव गुरु मानता रहा, जबकि सिद्धराज ने उन्हें विश्वस्त मित्र माना था। फिर भी राजसभा में रहते हुए भी हेमचन्द्र ने राजकवि का पद नहीं ग्रहण किया। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व सार्वकालिक, सार्वदेशिक एवं विश्वजनीन रहा है किन्तु दुर्भाग्यवश अभी तक उसके व्यक्तित्व को सम्प्रदाय-विशेष तक ही सीमित रखा गया है। ११. हर्षकवि प्रबन्ध
हर्ष के पिता हीर थे और माता मामल्यदेवी थीं। उन्होंने अपने ग्रन्थ नैषध के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में अपनी ब्राह्मण माता का तथा कभी-कभी अपने अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया है। हीर काशी के राजा विजयचन्द्र ( ११५५-६९ ई० ) की और उसके पुत्र ( ? पौत्र) जयचन्द्र (११७०-९४ ई० ) की राजसभा के पण्डित थे। हर्षकवि ने बाल्यावस्था में सम्भवतः माता-पिता के अधीन अध्ययन किया।
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