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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन
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रचना की थी । उनमें से ८८ ग्रन्थों की खोज की गयी है जिनमें से २६ तो निश्चय ही उसकी कृतियाँ हैं ।"
उद्योतनसूरि अपनी कुवलयमाला ( ७७८ ई० ) की प्रशस्ति में स्वीकार करते हैं कि वह हरिभद्र के शिष्य थे । इसलिए मुनि जिनविजय ने हरिभद्र की तिथि ७००- ७७० ई० निर्धारित की है । हरमन याकोबी ने जिनविजय द्वारा प्रदत्त तिथि का अनुमोदन किया है । " किन्तु निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस तिथि का पुनरावलोकन करना आवश्यक हो जाता है ।
हरिभद्र सिद्धसेन द्वितीय और उसकी सन्मति ( ५५०-६०० ई० ) तथा इसके पूर्व के कई ग्रन्थकारों का सन्दर्भ और उद्धरण देते हैं अकलंक ( ६२५-६७५ ई० ) को वह सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । अपनी अनेकान्तजयपताका में वे प्रायः अकलंक के तर्क की प्रशंसा करते हैं । भर्तृहरि ( ५९०-६५० ई० ), धर्मकीर्ति ( ६३५ ६५० ई० ), कुमारिल ( ६०० - ६६० ई० ) और धर्मोत्तर (७००-७८० ई० ) प्रभृति विद्वानों का और उनके ग्रन्थों के उल्लेख हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में किये हैं । अतः हरिभद्र इनके बाद हुए हैं। फलतः हरिभद्र के साहित्यिक क्रिया-कलाप ८०० ई० के आगे तक फैल जाते हैं । हरिभद्र की ख्याति दीर्घायु के लिये भी है । अतएव हरिभद्रसूरि सम्भवतः ७२५-८२५ ई० के बीच रहे हैं ।
६. बप्पभट्टिसूरि प्रबन्ध
सूरपाल ( बप्पभट्टि ) क्षत्रिय का जन्म ७४३ ई० में पञ्चाल देश के डूम्बाउधी ग्राम में हुआ था । उनके पिता बप्प और माता भट्टि
१. दे० 'समराइच्चकहा' में याकोबी द्वारा प्रस्तावना; प्रेमी वाल्यूम, पृ० ४५१; दास, एच० जी० : हरिभद्रचरित; जैन ग्रन्थावली ( बेलानी ) पृ० ५-७; जोहरापुरकर पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ५१ जैपइ, पृ० ४८५-४८६ पर हरिभद्र रचित कुल ५६ ग्रन्थों के नाम प्रकाशित किये गये हैं । २. जिनविजय, 'डेट ऑफ हरिभद्र', समरीज, आल इण्डिया ओरियण्टल
काँग्रेस, पूना, १९१९, पृ० १२४ ।
३. समराइच्चकहा की प्रस्तावना ।
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