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८. हरिभद्रसूरि प्रबन्ध
हरिभद्र का जन्म चित्रकूट ( चित्तौड़ ) में हुआ था। उनमें ज्ञान, सम्मान और सत्ता इन तीनों का योग था । उस 'कलिकालसर्वज्ञ' का अभिमान एक विदुषी जैनसाध्वी याकिनी ने भंग कर दिया । तदनन्तर हरिभद्र ने अपने भांजे हंस और परमहंस को अपना प्रिय शिष्य
बनाया ।
प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
एक बार वे दोनों शिष्य जिन प्रतिमा के चित्र में तीन रेखाएँ खींच कर, उसे बुद्ध का चित्र बना उस पर पैर रखकर भाग आये । बौद्ध सैनिकों ने एक शिष्य को रास्ते में और दूसरे को चित्तौड़ दुर्ग के पास मार डाला । इससे हरिभद्र क्रोधित हुए । १४४० बौद्धों को एकत्र कर गर्म तेल की कढ़ाई में झोंकने की तैयारी होने लगी ।
गुरु द्वारा भेजी गयी 'समरादित्य' चरित्र की चार गाथाओं को पढ़कर लोगों को बोध हुआ और शान्ति मिली। इसके प्रायश्चित - स्वरूप हरिभद्र ने १४४० ग्रन्थों का प्रणयन किया । चित्तौड़ की तलहटी के व्यापारियों ने उनके ग्रन्थों की प्रतियाँ करायीं और खूब प्रचार किया ।
हरिभद्र ने श्रीमालपुर के एक क्षत्रिय द्यूतकार युवक को उपदेश दिया और उसके ज्ञान के लिये 'ललितविस्तरा' ग्रन्थ रचा। इसके बाद हरिभद्र अनशन करके सुरलोक सिधारे ।
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हरिभद्र का इतिवृत्त प्रभावकचरित पुरातनप्रबन्धसंग्रह और पट्टावलियों में विस्तार से प्राप्त होता है। इस आचार्य के हारिल, हरिगुप्त और हरिभद्र तीन नाम आते हैं। हरिभद्र नामक छः प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं । इनमें से प्रथम हरिभद्र ( ७२५-८२५ ई० ) का वर्णन प्रबन्धकोश में किया गया है । उनके पास एक ऐसा रत्न था जिसमें दीपक की तरह प्रकाश था जिससे आचार्य जी रात्रि में भी ग्रन्थ लिख लेते थे । हरिभद्र श्वेताम्बरों का सम्भवतः सर्वश्रेष्ठ विद्वान् और आगम-ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने वाला प्रथम व्यक्ति था। कहा जाता है कि इस सर्वशास्त्रपारंगत ने १४४० ग्रन्थों की १. बेलानी, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ०५, २०, २१, २४, २८, ३१ ।
२. जैपइ, पू० ४८० - ४८२ ।
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