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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
सातवीं शताब्दी ई० में मानने के इच्छुक हैं। कुछ भारतीय इतिहासकार भी इन्हें समन्तभद्र के बाद का या ५५० से ६०० ई० के बीच का मानते हैं।' उन्होंने जिनसेन के हरिवंश ( ७८३ ई०), पट्टावलि समुच्चय तथा पद्मचरित के आधार पर सिद्धसेन को छठी - सातवीं शताब्दी ई० का सिद्ध करने का प्रयास किया है, जो त्रुटिपूर्ण है ।
सिद्धसेन का सत्ता- समय चतुर्थ शताब्दी ई० के अन्त और पाँचवीं के प्रारम्भ में होने का एक प्रमाण यह भी है कि वह द्वितीय स्कन्दिल सूरि ( निधन ३७३ ई० ) के प्रशिष्य थे । इस मत के समीप फतेहचन्द बेलानी का एक विचार और है कि सिद्धसेन विक्रम संवत् की चौथी - पाँचवी शताब्दी में हुए । अतः सिद्धसेन का चतुर्थ शताब्दी ई० के अन्त और पाँचवीं के प्रारम्भ में होना निश्चित है क्योंकि सिद्धसेन और चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ( ३८०-४१२ ई० ) की समकालिता भी इस मत की पुष्टि करती है ।
प्रबन्धकोश में वर्णित उज्जयिनी का यह विक्रमादित्य न तो प्रथम शताब्दी ई० पू० वाला विक्रमादित्य है और न मालवा का यशोधर्मदेव । प्रथम शती ई० पू० में सिद्धसेन दिवाकर और उनके ग्रन्थों की रचना - काल का मेल नहीं बैठता । यशोधर्मदेव का काल ५वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और छठीं का पूर्वार्द्ध होने से वृद्धवादि की सामयिकता नहीं बैठती । अतः यह गुप्तकाल का द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ( ३८०-४१२ ई० ) ही है जो वृद्धवादि- सिद्धसेन का समसामयिक रहा होगा ।
ओङ्कार नगर पूर्वी मालवा का आकर हो सकता है, जबकि अन्य
१. जैपइ, पृ० २५८-२६२ में इसका विस्तृत विवेचन मिलता है ।
२. जैनसो, पृ० १६५ - १६६; मुख्तार, जुगुल किशोर ( कट्टर दिगम्बर ) के विचारों के लिए दे० जैपइ, पृ० २५८; इन विद्वानों ने पट्टावलि समुच्चय ( पृ० १५० ) तथा पद्मचरित ( पर्व १२३, पद १६७ ) को आधार माना है ।
३. स्कन्दिल दो हुए हैं जिनमें प्रथम का स्वर्गवास ५३ ई० पू० में तथा हुआ था । दे० जैपइ, पृ० २६१; बेलानी :
द्वितीय का ३७३ ई० में पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ३ ।
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