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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन । ४३ आदेश दिया कि वे ब्राह्मणों को प्रणाम करें। अतः खपुट ने जैनप्रभावना के लिये अपने शिष्य महेन्द्र को वहाँ भेजा था। अन्त में आर्यखपट अपने भाजे भुवन को सूरिपद देकर, अनशन कर आकाशगामी हो गये।
विद्यासिद्ध आर्य खपुट का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति और प्रभावकचरित में भी हुआ है। आर्य खपुट का समय प्रथम शताब्दी ई० पू० से प्रथम शताब्दी ई० के बीच में है क्योंकि प्रभावकचरित में कहा गया है कि वीर निर्वाण के ४८४ वर्ष बाद आर्य खपुट हुए। चूंकि वीर निर्वाण की तिथि ५२७ ई० पू० है अतः उसमें से ४८४ घटाने पर ४३ ई० पू० आता है जो खपुट की तिथि है। उसी ग्रन्थ में वर्णन है कि वि० सं० १३५ ( तदनुसार ७८ ई० ) में भृगुकच्छ में बलमित्र नामक
राजा था, जो आर्यखपुट व पादलिप्त का समकालीन था। तपगच्छपट्टावलि द्वारा भी इसकी पुष्टि हो जाती है जिसमें कहा गया है कि आर्य खपुट वीर सं० ४५३ में हुए थे।
इस प्रबन्ध में आये गुडशस्त्रपुर का समीकरण आधुनिक गोडूरपुर (खरगाँव, जि० निमाड़, म० प्र०) से किया जा सकता है जो नर्मदा के दक्षिणी तट पर स्थित है। इस प्रकार भृगुकच्छ और गुडशस्त्रपुर के बीच करीब २५० कि० मी० की दूरी हुई जिसे पार कर वृद्धकर वादी बौद्धों की सहायता के लिए आये होंगे। ___ आर्य खपुट सुरिपुंगव महाविद्या के भण्डार, महान् मन्त्रवादी और प्रभावक आचार्य हुए हैं। इन्होंने भड़ौच, गुडशस्त्रपुर और पाटलिपुत्र में बौद्धों और ब्राह्मणों को पराजितकर जैन-शासन की प्रसिद्धि की। पाटलिपुत्र में जो दाहड़ नामक राजा था उसका समीकरण अन्तिम शुङ्ग राजा देवभूति (८२-७३ ई० पू० ) से किया जा सकता है।' १. श्रीवीर मुक्तितः शतचतुष्टये चतुरशीति संयुक्ते ।
वर्षाणां समजायत श्रीमानाचार्यखपुटगुरुः ॥ ७९ ॥ प्रभाच, पृ० ४३ । २. दे० जैपइ, पृ० २३५ । ३. दे० ला : हि० ज्यो०, पृ० ३७१; दे० पूर्ववणित, टि० ७८ भी। ४. दे. त्रिपाठी, सच्चिदानन्द : शुंगकालीन भारत, वि० वि० प्रकाशन,
वाराणसी, १९७७, पृ० ७१; दे. जैपइ, पृ० २३३ भी; पाजिटर;
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