________________
४०1
प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
बड़ी आयु का था। प्रबन्ध का शीर्षक 'भद्रबाहु-वराह प्रबन्ध' है जिसमें पहला नाम ज्येष्ठ भ्राता का ही होना चाहिये, जैसे राजशेखर ने वस्तुपाल-तेजपाल भाइयों का नाम प्रयुक्त किया है। इस प्रकार राजशेखर ने प्रबन्धचिन्तामणि की गलती में सुधार किया है।
अन्त में दो प्रश्न रह जाते हैं—पहला, राजा शत्रुजित का समीकरण और दूसरा, राजशेखर ने छठी शताब्दी के भद्रबाहु का वर्णन पहले क्यों किया ? शत्रुजित प्रतिष्ठानपुर का कदाचित् कोई अधिकारी था जो जैन-धर्म से प्रभावित था, जिसे जैन-धर्म की महत्ता बढ़ाने के लिए राजशेखर ने राजा कहा। दूसरे प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि चूंकि भद्रबाहु नाम के दो आदरणीय आचार्य ई० पू० में ही हो चुके थे इसलिए राजशेखर ने उनके प्रबन्ध को प्रथम स्थान दिया। २. भार्यनम्बिल प्रबन्ध
पद्मनीखण्ड नगर में राजा पद्मप्रभ और रानी पद्मावती थे। वहाँ के श्रेष्ठी पद्मदत्त और श्रेष्ठिनी पद्मयशा के पुत्र का नाम पद्मनाभ था जिसका विवाह सार्थवाह वरदत्त की पुत्री वैरोट्या से हुआ था। वैरोट्या को उसका श्वशुर कर्णकटु व कर्कश वचन द्वारा बहुत दुःख देता था किन्तु आर्यनन्दिल वैरोट्या को सान्त्वना दिया करते थे।
एक बार वैरोट्या ने अपनी गर्भावस्था में नागपत्नी को अवशिष्ट पायस खिला दिया जिससे वैरोट्या के पुत्र उत्पन्न हुआ। पितृ-गृह लक्ष्मी से सम्पन्न हो गया और श्वशुर पद्मदत्त द्वारा वैरोट्या का सत्कार होने लगा।
एक अन्य अवसर पर वैरोट्या ने नागपत्नी के पुत्रों को बचाया था। नागराज ने वैरोट्या को अभयदान और उसके पुत्र को नागदत्त' नाम दिया । आर्यनन्दिल ने वैरोट्या को उपदेश दिया और 'वैरोट्यास्तव' की रचना की, जिसे पढ़ने वाले को सर्प-भय नहीं रहता।
प्रभावकचरित में आर्यनन्दिल को आर्य रक्षित वंश का और भविष्यज्ञाता बतलाया गया है किन्तु नन्दीसूत्र की टीका में मलयगिरि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org