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ग्रन्थ-परिचय
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कथाकोश की रचना सज्जन के पुत्र कृष्ण के परिवार को उपदेश देने के लिए की थी। उसी परम्परा पर राजशेखर ने भी सोद्देश्य प्रबन्धकोश की रचना की थी। उसने महणसिंह की प्रेरणा से इस ग्रन्थ की रचना की थी। ___ अन्ततः प्रबन्धकोश की रचना का उद्देश्य शास्त्रों को नष्ट होने से बचाना था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राजशेखर ने अनेक घटनाओं और व्यक्तियों का इतिहास संग्रह करके हमें उस युग की जानकारी का साधन उपलब्ध करा दिया है । यह उसकी महती देन है । ६. भाषा-शैली
भाषाएँ हमारे विचारों और भावनाओं को प्रकट करने का माध्यम हैं। व्याकरणाचार्यों ने संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश को एक स्वतन्त्र स्थान दिया है। प्रबन्धकोश में प्रथम दो संस्कृत और प्राकृत का प्रभूत प्रयोग किया गया है। मूलतः यह संस्कृत का ग्रन्थ है, जिसमें प्राकृत, अपभ्रंश और यामिनी भाषा के शब्दों के यत्र-तत्र प्रयोग हुए हैं । राजशेखर ने स्पष्ट किया है कि प्राकृत भाषा नारी के समान सुकुमार और संस्कृत पुरुष के समान कठोर है। प्राकृतें सांस्कृतिक कलेवरों में बँध न सकीं, वे जनसाधारण की भाषाएँ थीं और जब-जब उन्हें संस्कृत करने का प्रयास किया गया, तब-तब वे शृंखलायें तोड़कर स्वतन्त्र हो गयीं, फिर जन-कोलाहल की शक्ति बन गयीं। संस्कृत के दार्शनिक धरोहरों के विरोध में जब-जब विद्रोह हुआ, तब-तब भाव का वाहन प्राकृतों को ही बनना पड़ा है। जैन-धर्म की यह प्रधान भाषा थी। विशुद्ध जैन-साहित्य का प्राकृत वाङ्मय में अत्यधिक महत्व है। क्लिष्ट भाषा का यथाशक्य प्रयोग नहीं किया गया है। स्थलस्थल पर संस्कृत या प्राकृत पद्यों एवं स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से प्रबन्धकोश ग्रन्थ सुपाठ्य हो जाता है। ये पद्य पाठकों को सुरुचिपूर्ण विश्राम प्रदान करते हैं। इन पद्यों में भाषा अवश्य आलंकारिक हो गयी है। चौबीस में से केवल एक प्रबन्ध पूर्णतया संस्कृत पद्य में है, १. सज्जन तो मूलराज का कानूनी सलाहकार और प्राग्वाट वंश का था।
दे० जैन, हीरालाल : द स्ट्रगल फॉर एम्पायर ( सम्पा० ), मजुमदार, आर० सी० : भारतीय विद्या भवन, बम्बई, १९६६, पृ० ४२८ ।
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