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ग्रन्थ-परिचय
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ऐतिहासिक निष्पक्षता के गुणों को स्वीकारा है। उसमें वस्तुपरकता थी । वस्तुपरक ग्रन्थ में रचयिता यथासाध्य तटस्थ रहकर रचना करता है और अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष से उसे प्रभावित नहीं होने देता है। वस्तुपरकता भी एक कर्तव्य है जिसके निर्वाह की प्रत्येक इतिहासकार से अपेक्षा की जाती है । यह कोई ऐसा गुण नहीं है जिसके लिये इतिहासकार विशेष रूप से प्रशस्त समझा जाय । यह इतिहास के लिए पहली शर्त है, अन्तिम नहीं ।
राजशेखर का अगला उद्देश्य पाठकों या श्रोताओं का मनोरंजन करना था, चर्वितचर्वण नहीं । प्राचीन समय में कही गयी बातों को दुहराना उसे अभीष्ट न था । नवीन प्रबन्धों को प्रकाशित करना उसका उद्देश्य था । अतः पाठकों या श्रोताओं की रुचि बनाये रखने के उद्देश्य से राजशेखर ने प्रबन्धकोश ग्रन्थ की रचना की थी । प्रबन्धकोश की रचना का एक और उद्देश्य जैन-धर्म के प्रति बोधभावना प्रदर्शित करना था । राजशेखर ने निनपति के मत के अनुसार सफलतापूर्वक बोध की कामना से कोमल गद्यों से मुग्ध होकर इस प्रबन्धकोश की रचना की । प्रबन्धकोश का उपदेशात्मक उद्देश्य स्पष्ट है | साहित्यिक ग्रन्थों में नैतिकता या सदाचार सम्बन्धी उपदेश देने में प्रवण होना उपदेशात्मकता कहलाता है । अतएव प्रबन्धकोश की रचना का उद्देश्य 'स्वान्तः सुखाय' के अलावा 'बहुजनसुखाय' अधिक है तथा किसी भी अनुचित प्रसङ्ग में राजशेखर उपदेश-प्रवण नहीं हुआ है । उदाहरण के लिए 'मुण्डिका को मारो' में निहितार्थ प्रच्छन्न है | हेमचन्द्र के 'प्राकृतव्याकरण', मेरुतुङ्गकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि', राजशेखर के 'प्रबन्धकोश' आदि में भी पर्याप्त संख्या में सूक्तियों का सन्निवेश हुआ है। राजशेखर कहता है " राजा जिसकी पूजा करता है, उसका सभी सम्मान करते हैं । पाप तुरन्त फल देने वाला होता है । बालकों से लेकर वृद्धों तक का सम्मान करना
१. प्रको, पृ० ४७ । प्रचि ( पृ० १ ) में मेरुतुङ्ग ने भी इसी प्रकार का मिलता-जुलता उद्देश्य बतलाया है । एक ही प्रकार की कथा को बारबार सुनना रुचिकर नहीं होता ।
२. तेनायं मृदुगद्यैर्मुग्धो मुग्धावबोधकामेन ।
रचित प्रबन्धकोशो जयताञ्जिनपतिमतं यावत् ।। ३ ।। प्रको, पु० १३१ ।
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