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अध्याय - ३
ग्रन्थ- परिचय
ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विकास के दो रूप देखने को मिलते हैंरेखावत् और चक्रवत् । रेखावत् में मानव-जाति एक निश्चित गन्तव्य की ओर सीधी रेखा में बढ़ती है । चक्रवत् में मानवता एक समान अवस्था अथवा अवस्थाओं को पुनः पुनः प्राप्त हुआ करती है । प्रबन्धकोश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विकास रेखावत् रूप में दिखायी पड़ता है । परन्तु इसकी राजनीतिक व साहित्यिक पृष्ठभूमि में चक्र - वत् रूप सक्रिय है । राजनीति में परिवर्तन और साहित्य का सर्जन चक्रीय गति में पुनः - पुनः दीख पड़ता है, क्योंकि देश की राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियाँ साहित्य का रूप निर्धारण करने वाली प्रेरक शक्तियाँ हैं ।
सिद्धराज व कुमारपाल के ऐश्वर्यकाल में द्वयाश्रय जैसे महाकाव्य भी रचे जा सके, किन्तु तुगलकयुगीन भारत की राजनीतिक व सामाजिक दशाओं के अनुरूप गुजरात, मालवा व दिल्ली में महाकाव्य प्रभृति कृतियों के स्थान पर लघु अध्यायपरक साहित्य व इतिवृत्त की विधाही प्रस्फुटित हुई । कालान्तर में तुलसी ने महाकाव्य की रचना अकबर के राजत्वकाल में की जबकि बाबर या हुमायूँ के अस्थिर शासन काल में कबीर या नानक द्वारा साहित्य के उक्त रूप की सर्जना न हो सकी थी । अतः साहित्यिक और इतिवृत्तात्मक कृतियों का पल्लवन समाज की रुचि और उन रचनाओं के पठन या श्रवण के समयावकाश पर भी निर्भर करता है ।
वस्तुतः भारतीय इतिहास में कोई ऐसा काल नहीं था जब सम्पूर्ण भारत में केवल मुसलमानों का ही शासन रहा हो और हिन्दुओं की राजसंस्था समूल नष्ट हो गई हो । अरबों का सिन्ध पर आक्रमण भारतीय इतिहास की एक उपकथा मात्र बनकर रह गई थी । उस समय उत्तर भारत में छोटे-छोटे राजपूत राज्य थे । दक्षिण के पूर्व
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