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प्रबन्धकार की जीवनी व कृतित्व
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भी किये गये हैं।
सुधाकलश मुनि राजशेखरसूरि का शिष्य था, इसका एक और प्रमाण 'एकाक्षरनाममाला " का अन्तिम पद्य है जिसमें ग्रन्थकार सुधाकलश ने अपना परिचय देते हुए अपने को मलधारिगच्छभर्ता गुरु राजशेखरसूरि का शिष्य बताया है।
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राजशेखर के निधन की तिथि प्राप्त नहीं होती है किन्तु इतना अवश्य है कि उसने दीर्घायु प्राप्त की थी । उसने १३४८-४९ ई० में प्रबन्धकोश की रचना की थी । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि राजशेखर फिरोज तुगलक का शासन ( १३५१-८८ ई० ) अधिक दिनों तक न देख सका, क्योंकि अब वह प्रायः साठ-पैंसठ वर्ष की आयु का हो चुका था । साहित्यिक प्रमाण राजशेखर के लिए अन्तिम तिथि वि० सं० १४१० ( तदनुसार १३५२-५३ ई० ) प्रदान करते हैं जब उसने शान्तिनाथचरित का संशोधन किया था । अतः इसी तिथि के आस-पास राजशेखर की मृत्यु हुई होगी ।
इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी के अन्त में जन्मे राजशेखर ने व्यापक अध्ययन, पर्यटन व विविध विद्याओं की जानकारी द्वारा सूरिपद प्राप्त कर, मुहम्मद तुगलक के समय में प्रतिष्ठा अर्जित की तथा प्रबन्धकोशादि ग्रन्थों एवं शिष्य - समुदाय को छोड़कर चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महाप्रयाण किया ।
चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजशेखर का महाप्रयाण तो हो गया था, किन्तु उसकी कृतियाँ आज भी जीवित हैं । ये कृतियाँ उसके कवि, टीकाकार, संशोधक, दार्शनिक और इतिहासकार होने के प्रमाण हैं । उसकी कृतियाँ मुख्यतः संस्कृत में रची गयी हैं जिनमें कहीं-कहीं प्राकृत पद्यों का समावेश एक मनोहारी परिवर्तन का सूचक हो जाता है, जैसे अन्तर्कथा-संग्रह | इसे कथा - संग्रह. या विनोदकथासंग्रह,
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१. दे वही, पृ० ३८, ४८, ८६, ९१, ९२ तथा १०९ ।
२. विजयकस्तूरसूरि ( सम्पा० )
'अभिधानचिन्तामणि- कोश', देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सीरीज, बम्बई, कोश का परिशिष्ट, पृ० २३६-२४० तथा उसी संस्था से प्रकाशित 'अनेकार्थरत्नमञ्जूषा ' के परिशिष्ट 'क' में सुधाकलश का प्रन्थ प्रकाशित है ।
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