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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
जैन-प्रबन्ध प्रायः गद्य में हैं जबकि जैन-चरित मुश्किल से गद्य में लिखे गये हैं। पहले वाले सामान्यतया गुजरात, मालवा के श्वेताम्बरों द्वारा लिखे गये हैं जबकि बाद वाले श्वेताम्बरों और दिगम्बरों दोनों द्वारा। जैन-प्रबन्धों में उपकथाएँ या अन्तर्कथाएँ कम हैं परन्तु जैनचरितों में इनकी बहुलता के साथ-साथ विषयान्तर भी हो जाया करता है। भाषा की दृष्टि से जैन-प्रबन्ध सरल संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अधिक लिखे हुए हैं किन्तु परवर्ती जैन-चरित मुख्यतया संस्कृत में ही लिखे हुए हैं जिनकी भाषा अधिक रुढ़िवादी और क्लिष्ट है। कभीकभी नामाभिधान की दृष्टि से भी इन दोनों में अन्तर स्थापित किया जाता है किन्तु यह सदा सही नहीं ठहरता है। इस दृष्टि से अन्तर स्थापित करने के लिए प्रत्येक ग्रन्थ का अलग-अलग और व्यक्तिगत ढंग से अवलोकन करना पड़ता है । क्योंकि 'प्रभावकचरित', 'कुमारपालचरित' आदि ग्रन्थों के चरित नामाभिधान होते हुए भी उनमें प्रबन्धों को ही लिखा गया है।
ऐतिहासिक पहुँच के दृष्टिकोण से भी इन दोनों में काफ़ी अन्तर है। जैन-प्रबन्धों की पहुँच और लेखन-प्रणाली ऐतिहासिक है जबकि जैन-चरितों में इनका अभाव पाया जाता है। जैन-प्रबन्धों में कारणत्व, साक्ष्य, स्रोत, तथ्य, कालक्रम आदि पर विशेष बल दिया जाता है ।
अतएव प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन प्रारम्भ करने से पूर्व प्रबन्धकार की जीवनी व कृतित्व पर प्रकाश डाला जायेगा।
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