________________
प्रस्तावना
t 49
1
चरिउ आदि । इनमें विषय-विस्तार मर्यादित होता है । " चरित कथात्मक अधिक और वर्णनात्मक कम होते हैं । प्रायः अन्त में नायक किसी प्रेरणा या उपदेश से संसार से विरक्त होकर जैन मुनि बन जाता है । जेन चरित में कथारम्भ हेतु वक्ता श्रोता योजना अवश्य होती है । प्रश्नोत्तर - योजना गुरु-शिष्य, कथाविद्-श्रावक, कवि कविपत्नी के बीच प्रायः पायी जाती है । चरितों का कथानक जटिल होता है । ये उद्देश्य प्रधान होते हैं । इनमें अलौकिक, अप्राकृतिक और अतिमानवीय शक्तियों और कार्यों का समावेश अवश्य रहता है ।
परन्तु जैन-चरित व जैन - प्रबन्ध में अन्तर बनाये रखना कठिन है । 'चरित' नामाभिधान अपभ्रंश साहित्य में प्रचलित था । उत्तर अपभ्रंश काल में 'प्रबन्ध' ने शनैः-शनैः इसे स्थानापन्न कर दिया । तब यह वैयक्तिक रुचि का विषय हो गया कि अमुक ग्रन्थ को प्रबन्ध कहा जाय अथवा चरित ।
इसीलिये कभी-कभी जैन - प्रबन्ध और जैन चरित को एक समान मान लिया जाता है किन्तु इन दोनों में अन्तर है । प्राचीनता की दृष्टि से जैन-चरित अधिक पुराना है। राजशेखरसूरि के अनुसार तीर्थङ्करों, चक्रवर्तिनों आदि और आर्यरक्षित तक के ऋषियों के जीवन वृत्तान्त चरित कहलाते हैं । इस कथन का कोई प्राचीन आधार नहीं है । इस विभेद का विद्वानों ने पालन नहीं किया । अतः जैन-चरित पौराणिक जीवनियाँ हैं । हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित जैन-चरित का और मेरुतुङ्ग की प्रबन्धचिन्तामणि जैन- प्रबन्धों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । जैन-चरित, जैन- प्रबन्ध की अपेक्षा काया में अधिक बृहद् होते हैं. एक ही पुरुष का चरित एक ही ग्रन्थ में आबद्ध किया जा सकता है जबकि जैन - प्रबन्धों के एक ग्रन्थ में कई पुरुषों या घटनाओं के कई छोटे-छोटे प्रबन्ध गूँथे जाते हैं । जैन-चरित अर्द्धऐतिहासिक और पौराणिक होते हैं जबकि जैन - प्रवन्ध अधिकांशतः ऐतिहासिक होते हैं | साहित्य के रूप व विषय-वस्तु की दृष्टियों से भी इनमें अन्तर है ।
१. भायाणी, हरिवल्लभ : पउमसिरिचरिउ, भूमिका, पृ० १५ । २. जैहिइलि पृ० १३; लिसमव, पृ० १०३; पाहिनाइ पृ० १ व ३; जैसाबृइति, भाग ६, पृ० ४१८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org