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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
(२) विलम्ब बही अर्थात् प्रदान बही, और ( ३ ) परलोक बही या धर्म बही।' - इस प्रकार गुजरात और मालवा में जैन इतिहास का विकास-क्रम द्रुतगति से आगे बढ़ा। गुजरात ने प्रबल आघात सहे हैं और यहाँ के ग्रन्थकारों में देश-प्रेम का भाव उत्पन्न होने से इतिहास-लेखन की भावना का द्रुतगति से विकास हुआ। सूरियों, सन्तों और आचार्यों ने जैन-प्रबन्ध लिखे । अतः गुजरात के जैनों में भारतवर्ष के अन्य धर्मावलम्बियों की अपेक्षा इतिहास की अवधारणा अधिक पुष्ट थी।
मेरुतुङ्ग ने इतिहास की एक सुस्पष्ट अवधारणा बना ली थी। वह इतिहास को परम्परा, स्रोत-ग्रन्थों एवं यथाश्रुति पर आधारित मानता था। उसके विचारानुसार योग्य परम्परा तथा सूनी-सूनायी बातें ही इतिहास का निर्माण करती हैं। उसने स्थान-स्थान पर स्रोत ग्रन्थों का खूब उपयोग भी किया है और उनमें से कुछ को उद्धृत भी किया है। उसने प्रबन्ध-चिन्तामणि को तिथियों और कालक्रम से इतना गुम्फित कर दिया है जिससे सिद्ध होता है कि उसको इतिहास की सच्ची पकड़ थी। प्रकीर्णक प्रबन्ध में मेरुतुङ्ग ने इतिहास सम्बन्धी अपनी अवधारणा को मूर्त रूप दिया है । उसने वह वृत्तान्त जैसा घटा था वैसा ही निवेदित किया । अतः मेरुतुङ्ग के अनुसार घटित घटना की उसी रूप में प्रस्तुति ही इतिहास है। उसने अपने ज्ञान को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया था, यथा-काव्य, इतिहास और दर्शन जिसमें कल्पना, स्मृति और बुद्धि का सन्तुलित उपयोग किया गया था, किन्तु उसने इतिहास को स्मृति के अलावा परम्परा और चक्षुशियों पर भी आधारित किया था।
राजशेखर ने मेरुतुङ्ग द्वारा स्थापित इतिहास की परम्परा को आगे बढ़ाया। उसने जैन-प्रबन्ध को एक स्वतन्त्र शास्त्र का स्थान १. आभडस्य वहिकास्तिस्त्रः । एका रोक्यवही, अपरा विलम्बवही, तृतीया
परलोक ( पारलौकिक ) वही । प्रको, पृ. ९८ । २. ग्रन्थे तथाप्यत्र सुसम्प्रदायाद् दृब्धे । प्रचि, पृ० १ । ३. तवृत्तान्तं प्रत्युपकारभीरुः यथावस्थितं निवेदयामास । वही, पृ० ११७ ।
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