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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
यहीं पर उसका वर्णन विषयगत हो जाता है । इतिहास द्वारा राजनीति को स्पष्ट करने की शैली का मध्यकालीन ग्रन्थों में प्रायः पालन हुआ है । अतः बरनी का विचार था कि ग्रन्थों की रचना द्वारा उसका खोया हुआ सम्मान पुनः वापस मिल जायगा।
वस्तुतः जियाउद्दीन जीवन का 'कड़वा और मीठा' दोनों चखने के उपरान्त पकी आयु में परलोकवासी हुआ था। बरनी के प्रत्येक ग्रन्थ में धार्मिक कट्टरपन झलकता है। उसका दृष्टिकोण धर्म से रँगा था। अतः उसने सुल्तान के कार्यों और नीतियों की व्याख्या धर्म के परिप्रेक्ष्य में की। चूंकि बरनी उलेमा वर्ग का था, उसने उस युग की राजनीति धार्मिक दृष्टिकोण से देखी थी जिससे उसके ग्रन्थों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। यही नहीं बरनी का मस्तिष्क हिन्दुओं के प्रति भ्रमित और अस्थिर था। उसका विश्वास था कि सभी हिन्दुओं को मुसलमान बनाना या तलवार के घाट उतारना सम्भव नहीं है। 'तारीख' द्वारा बरनी ने यह समझाया है कि हिन्दुओं को दरिद्र और मुहताज बना दिया जाय।
राजशेखर ने प्रबन्धकोश में परम्पराओं को मूर्धन्य स्थान प्रदान किया है। उसी प्रकार बरनी इतिहास और इल्म-ए-हदीस को जुड़वा मानता है। उसके पास सुल्तानपद के दो सिद्धान्त थे कि सुल्तान इस संसार में खुदा का जिल्लल्लाह (प्रतिनिधि ) है और सुल्तान को जवाबित ( राजकीय नियम ) निर्माण करने की शक्ति है।' - राजशेखर ने राजाओं और मन्त्रियों के विषय में सामाजिक अपवादों या पराजयों जैसी अप्रिय घटनाओं तक का वर्णन किया है। लेकिन वरनी ने अप्रिय घटनाओं का या तो वर्णन ही नहीं किया है १. रिजवी, सै० अतहर अब्बास ( अनु० ) : आदि तुर्ककालीन भारत,
अलीगढ़, १९५६, पृ० ४ । २. हबीब, मो० : द पॉलिटिकल थेयरी ऑफ द देलही सल्तनत, पृ० १२८ । ३. बरनी : तारीख-ए-फीरोजशाही, पृ० १०-११ । ४. हसन ( सम्पा० ) : हिस्टोरिएन्स ऑफ मेडिवल इण्डिया में निजामी,
के. ए. का लेख जियाउद्दीन बरनी, पृ० ३८ तथा हबीब, मो० : द पॉलिटिकल थेयरी ऑफ द देलही सल्तनत, पृ० १६८-१६९ ।
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