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कर उसके प्रबन्धकोश का अपने ग्रन्थों में यत्र-तत्र स्फुट प्रयोग किया है । चतुर्विशतिप्रबन्ध ( अपरनाम प्रबन्धकोश ) पर नागरी प्रचारिणी पत्रिका में शिवदत्त शर्मा का केवल एक लेख और जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६ में लगभग आधा पृष्ठ प्रकाशित है। परन्तु पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों के प्रयासों के बावजूद आज तक प्रबन्धकोश का न तो हिन्दी या अंग्रेजी में अनुवाद हुआ, न उस पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित किया गया और न ही उसमें संकलित ऐतिहासिक सामग्री का अभी तक सम्यक् विवेचन ही किया जा सका है।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रबन्धकोश को पहली बार एक नये दष्टिकोण से देखा और परखा गया है। इसमें प्रबन्धकोश का परम्परागत राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक अथवा सांस्कृतिक अध्ययन न करके इतिहासशास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है ।
प्रबन्धकोश का यह ऐतिहासिक विवेचन जैन इतिहास-दर्शन के विकास-क्रम की एक कड़ी है, क्योंकि ग्रन्थ का प्रतिपादन करने में जो पद्धति अपनायी गयी है उसमें ग्रन्थागत प्रबन्धों में से अपेक्षित सामग्री का चयन एवं अन्य स्रोतों से उसकी पुष्टि करते हुए, इतिहास-दर्शन के विभिन्न तत्त्वों, यथा - ऐतिहासिक तथ्य, स्रोत, साक्ष्य, कारणत्व, परम्परा एवं कालक्रम, के परिप्रेक्ष्य में प्रबन्धकोश का विवेचन किया गया है जिसमें कहीं-कहीं सी० एच० टॉनी, जिनविजय और ए० के० मजुमदार प्रभृति विद्वानों तक के मतों में संशोधन करना पड़ा है।
इस पुस्तक के प्रणयन के समय कुछ विषयों पर नये दृष्टिकोण से प्रथम बार प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। इस सन्दर्भ में जैन-प्रबन्धों एवं जैन-चरितों में अन्तर, राजशेखर की जीवनी व कृतित्व, प्रबन्धकोश के शीर्षक, वङ्कचूल प्रबन्ध और रत्नश्रावक प्रबन्ध की ऐतिहासिकता, राजशेखर का इतिहास-दर्शन, अन्य प्रमुख जैन प्रबन्धों, राजतरंगिणी तथा मुसलमानी, अंग्रेजी और फ्रान्सीसी ग्रन्थों से तुलना आदि के उल्लेख किये गये हैं। - प्रथम अध्याय में जैन-प्रबन्ध का अर्थ स्पष्ट करते हुए जैन इतिहास के विकासक्रम में प्रवन्धकोश का स्थान निर्धारित किया गया है।
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