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( xvil ) द्वितीय अध्याय में इतिहासकार राजशेखर की जीवनी व कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थ के शीर्षक, संस्करणों एवं भाषानुवादों का परिचय तृतीय अध्याय में दिया गया है। चतुर्थ और पञ्चम अध्याय ऐतिहासिक तथ्यों के हैं। षष्ठ एवं सप्तम अध्यायों में राजशेखर के इतिहास-दर्शन की विवेचना की गयी है। अष्टम अध्याय प्रबन्धकोश और अन्य ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है । अन्तिम अध्याय में उपसंहार के रूप में निष्कर्ष दिया हुआ है।
इस पुस्तक में यथेष्ट उद्धरण दिये गये हैं। इसको सुबोध बनाये रखने के लिए कुछ तथ्यों की पुनरावृत्ति की गयी है जिसकी स्वीकारोक्ति यथास्थान पाद-टिप्पणियों में कर दी गयी है। विषय-विवेचन को अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए अन्य मौलिक ग्रन्थों से प्रभूत सहायता ली गयी है । लेखक उन सभी ग्रन्थकारों का ऋणी है जिनकी कृतियों से उसने सहायता ली है जिनका अविरल ज्ञापन पाद-टिप्पणियों में किया गया है। प्रारम्भ में संकेत-सूची और अन्त में पाँच परिशिष्ट, अकारादि क्रमानुसार वर्गीकृत सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची, राजशेखर कालीन भारत का मानचित्र, अनुक्रमणिका तथा शुद्धिपत्र भी दिये गए हैं।
प्रबन्धकोश पर इस प्रकार का कार्य प्रथम प्रयास है, किन्तु अन्तिम नहीं क्योंकि ग्रन्थागत भौगोलिक तथ्यों एवं सांस्कृतिक पक्षों पर और कार्य किये जा सकते हैं। परन्तु उन्हें इसलिये स्थगित कर देना पड़ा कि पुस्तक में विस्तार सम्बन्धी दोष प्रविष्ट न हो सके।
पुस्तक का मूल रूप शोध-प्रबन्ध था, जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पी-एच० डी० उपाधि हेतु स्वीकृत किया गया था। इस सम्बन्ध में मैं अपनी निर्देशिका श्रीमती प्रो. कृष्णकान्ति गोपाल का सर्वाधिक आभारी हूँ। अपने सह-निर्देशक एवं पूज्य गुरुवर प्रो० लल्लनजी गोपाल के अधीन कार्य करने में मैं गौरव अनुभव करता हूँ जिनके अगाध पाण्डित्य एवं विद्यामय पथ-प्रदर्शन के कारण इस पूस्तक का दष्टिकोण इतिहासशास्त्रीय हो सका। मेरी जो कुछ भी उपलब्धि है उसमें मेरी पूज्या माँ श्रीमती पुष्पा भारद्वाज तथा पूज्य पिता डॉ. विश्वनाथ भारद्वाज के भी आशीर्वाद हैं।
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