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१४४ । प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन और गणना-पद्धति भी है।' 'सूर्य-सिद्धान्त' के अनुसार 'लोकनामन्तकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः' अर्थात् काल लोगों का अन्त करने वाला है; दूसरा काल कलनात्मक है ।' 'काल' शब्द 'कल्' धातु से उद्भूत है जिसका अर्थ हुआ गणना या मापन करना। अतः इसका मौलिक प्रयोग मापन के साधन के रूप में होता था। व्यावहारिक दृष्टि से काल-मापन करने और शुद्धकाल का ज्ञान रखने की रीति जानना अतीव आवश्यक है क्योंकि केवल काल सत्य है। गीता में 'काल' को अविनाशी कहा गया है। राजशेखर ने भी कहा है कि यह काल अतिशय शक्तिमान है।
प्राचीन भारत में काल-मापन के लिये कई संवत्सर प्रयुक्त किये जाते रहे। वीर संवत् महावीर निर्वाण के समय ५२७ ई० पू० से, विक्रम संवत् विक्रमादित्य की शक विजय के समय ५७ ई० पू० से और शक संवत् सम्राट् शालिवाहन द्वारा ईस्वी सन् के ७८ वर्ष बाद प्रचलित माना जाता है। राजशेखर लिखता है कि सातवाहन ने भी क्रमशः ऋणमुक्त होकर दक्षिणापथ से लेकर उत्तर में ताप्तीपर्यन्त विजय की और अपना संवत्सर प्रवर्तित किया।' इसमें विक्रम संवत् धर्म-निरपेक्ष एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय संवत् है जो विगत २००० वर्षों से भारत के अधिकांश भागों में प्रयुक्त होता रहा है। हरिभद्र (७७५ ई०), वीरसेन ( ७८० ई० ) तथा उसी समय के अकलंकचरित में विक्रमसंवत् का प्रयोग हुआ है। दसवीं और ग्यारहवीं
१. इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, जि० ५, १९५९, पृ. ६५३ । २. सिंह, अवधेशनारायण : काल तथा कालमान, श्रीसम्पूर्णानन्द अभि
नन्दन ग्रन्थ, काशी, १९५०, पृ० २२३ । ३. निरतिशयः कालोऽयम् ।' प्रको, पृ० ५३ । ४. दे० शुक्ल, वेणी प्रसाद : विक्रम संवत्, ना० प्र० पत्रिका, भाग १४,
वि० सं० १९९०, पृ. ४४९ । वि० सं० के प्रवर्तन के सम्बन्ध में मार्शल,
फ्लीट, भण्डारकर, स्मिथ, फर्ग्युसन आदि द्वारा कई सिद्धान्त पेश किये __ गए हैं । दे. विक्रउ तथा जैनसो, पृ० ६७-६८ । ५. प्रको, पृ. ६८। ६. जैनसो, पृ० ५५ ।
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