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________________ राजशेखर का इतिहास-दर्शन : कारणत्वं, परम्परा एवं कालक्रम [ १४१ चतुरंगिणी सेना आबू पर्वत से होकर गुजरात में प्रविष्ट हो गयी है ।" उसी प्रबन्ध में राजशेखर परम्पराओं के दो स्पष्ट रूपों का उल्लेख करता है (१) कर्णाकणिकया श्रुतं एवं (२) प्राचीन ख्यात । 'कर्णाकणिकया श्रुतं' का शाब्दिक अर्थ हुआ एक कान से दूसरे कान तक सुना गया । इस प्रथम रूप की व्याख्या करते हुए राजशेखर कहता है कि वीरधवल ने पहले भी दिल्ली-गमन वृत्तान्त कर्णाकणिकया द्वारा सुना था, किन्तु पुनः विशेषतः वस्तुपाल से पूछा । उसने भी सम्पूर्ण प्राचीन ख्यात सुनाया । वस्तुपाल के सम्बन्ध में 'कर्णपरम्परागत' प्रचलित उसकी कल्याणकारी कीर्ति सुनी जाती थी और वीरधवल को परम्पराओं का ज्ञान था । पट्टसूरि-प्रबन्ध में राजशेखर महापुरुषों की आचार-परम्परा की दुहाई देते हुए कहता है कि "महापुरुषों की आचार-परम्परा रही है अपना तथा गुरुओं का नाम न बताना ।" राजस्थापनाचार्यों ने भी परम्परा का पालन किया । राजागण भी पूर्वजों की परम्परानुसार देवीदाय देते आये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि राजशेखर गुरुओं, वृद्धजनों, महापुरुषों की परम्पराओं को देखने या सुनने के लिए व्यग्र रहा करता था । राजशेखरसूरि ने हेमप्रबन्ध में अनुश्रुति के आधार १. ' मन्ये अर्बुददिशा गुर्ज्जरधरां प्रवेष्टा ।' वही, पृ० ११७ । २. 'पूर्वमपि कर्णाकणिकया श्रुतं ढिल्लीगमनवृत्तान्तम् । पुनः सविशेषं मन्त्रिणं पप्रच्छ । सोऽपि निरवशेष मगर्वपरः प्राचख्यो ।' वही, पृ० १२० । ३. वही, पृ० १२४ | तुलना कीजिये ४. 'ज्ञातं पारम्पर्य वीरधवलेन', प्रको । ५. 'महाजनाचारपरम्परेदृशी 'स्वनाम' नामाददते न साधवः ।' पुस, पृ० ७०, पद २१६ । वही, पृ० २७ । -- ६. ' राजस्थापनाचार्याश्च पारम्पर्येण ।' वही, पृ० ३६ । 'देवीभ्यो राज्ञा देया भवन्ति पूर्वपुरुषक्रमात्।' वही, पृ० ४७ । वंशपरम्परा के लिए ! कुलमिति' शब्द भी प्रयुक्त किया गया है । दे० वही, पृ० १०० का अन्तिम शब्द । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002121
Book TitlePrabandh kosha ka Aetihasik Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravesh Bharadwaj
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1995
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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